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________________ मातृपितृसमं तीर्थ विद्यते न जगत्त्रये । यतः प्राप्नोति सुलभो नृभवः शिवशर्मदः ।। अर्थात्-माता-पिता के समान मनुष्य के लिये दूसरा कोई तीर्थ नहीं है। क्योंकि माता-पिता से मुक्ति-सुख तक देने वाला मानव शरीर प्राप्त होता है। विश्व-उद्धारक तीर्थंकर भगवान् का जगत्-हितकारी दिव्य उपदेश बिना किसी के आग्रह, अनुरोध तथा अनुनय-विनय के स्वयं होता है । उनकी इतनी इच्छा भी नहीं होती कि जनता हमारी वन्दना-नमस्कार करे, हमारा यश-विस्तार करे। तीर्थंकरों के अनुयायी गणधर, श्रुतकेवली, आचार्य, मुनि आदि भी तीर्थंकर देव का अनुकरण करके समस्त संसार में बिना किसी लालसा इच्छा के धर्म-प्रचार करते रहते हैं । थोड़ा-सा रूखा-सूखा भोजन, वह भी दिन में एक बार और वह भी कभी-कभी, लेकर अपना समस्त समय जनता के कल्याण में लगाते रहते हैं। उनके इसी महान् उपकार से आभारी होकर समस्त संसार उनके चरणों में शिर झुकाता है और उनकी बिना इच्छा तथा संकेत के उनका निर्मल यश विश्वव्यापक बना देता है। ___ इस तरह प्रकृति के जड़ पदार्थ तथा उच्च कोटि की परम महान् आत्माएँ हमको निष्काम सेवा करने का सुन्दर पाठ पढ़ाती हैं । यदि हम उस पाठ को हृदय पर अंकित करके उसका आवरण करें तो हम भी संसार में महान् व्यक्ति बन सकते हैं और संसार का तथा अपना बहुत कुछ उद्धार कर सकते हैं । सबसे प्रथम अपने विश्वकल्याणकारी जैनधर्म की सेवा करनी चाहिए । जैनधर्म ही प्राणीमात्र की रक्षा करने का उपदेश देता है और आत्मा को परमात्मा बनाने की विधि बताता है। अत: निर्दोष रूप से अपनी शक्ति अनुसार धर्म का स्वयं आचरण करना धर्म की मुख्य सेवा है, क्योंकि स्वयं आचरण किये बिना धर्म का प्रभाव दूसरे व्यक्ति पर नहीं डाला जा सकता। अतः स्वयं धर्माचरण करके ऐसे शुभ कार्य करने चाहिये जिससे दूसरे व्यक्ति भी जैनधर्म की ओर स्वयं आकर्षित हों, जैनधर्म की प्रशंसा करें। इसके सिवाय जैनधर्म के सत्य सिद्धान्त सरल भाषा में प्रकाशित करके जनता में उन्हें वितरण करें, जैन साहित्य जैनेतर विद्वानों को भेंट करें । जैनेतर भद्र पुरुषों के साथ सम्पर्क जोड़कर, उनके साथ प्रेम स्थापित करके उनको मोक्षमार्गप्रकाशक आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय कराएँ, जैनधर्म आचरण करने की प्रेरणा देते रहें । जैनेतर सभाओं में जैनधर्म के महत्त्व को प्रगट करने वाले भाषण दें । जो अपने जैन बन्धु धर्म से विचलित या शिथिल हो रहे हों उनको समझा-बुझाकर धर्म में दृढ़ करें। समाज-सेवा अपने समाज की निष्काम सेवा करना भी मनुष्य का प्रधान कर्तव्य है । व्यक्ति की उन्नति तभी होती है जबकि समाज की उन्नति होती है । यदि अपने समाज में अविद्या, दुराचार, ईष्या, द्वेष फैला हुआ होगा, दरिद्रता फैली हुई होगी तो उसका प्रभाव उस समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर थोड़ा-बहुत अवश्य पड़ेगा । समाज में अपने अनेक मित्र और सम्बन्धी होते हैं, उन पर आये कष्ट में अवश्य थोड़ा-बहुत भाग लेना ही पड़ता है। इस कारण मनुष्य को अपना स्वार्थ गौण करके समाज के हित को प्रधानता देनी चाहिये। इसके लिये समाज में शिक्षा का प्रचार करना चाहिये । समाज में फैली हुई कुरीतियों को दूर करना चाहिये। अपने समाज में अनाथ बच्चों, महिलाओं के शिक्षण, आजीविका आदि का प्रबन्ध कर देना चाहिये जिससे अपने समाज में कोई दुःखी न रहे । समाज में ऐसे नियमों का प्रचार करना चाहिये जिनके द्वारा निर्धन व्यक्ति भी अपने पुत्र-पुत्रियों के विवाह-सम्बन्ध आदि सामाजिक कार्य सरलता से कर सकें। सारांश यह है कि समाज को हम अपना बड़ा परिवार समझ कर उसके प्रत्येक बच्चे को अपना बच्चा, उसकी प्रत्येक स्त्री को अपनी बहिन, पुत्री और प्रत्येक मनुष्य को अपना भाई समझना चाहिये । दीन-दुःखी सेवा मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म दीन-दुःखी स्त्री-पुरुषों की सेवा करना है। धर्म का चिह्न दयाभाव है। जिसका चित्त दीन-दुःखी जीवों को देखकर नहीं पसीजता, उसके हृदय में लेशमात्र भी धर्मवासना नहीं । ऐसे मनुष्य का जप, तप, संयम केवल बाहरी ढोंग है। दीनदुःखियों के दुःख दूर करके जो मनुष्य उनका शुभ आशीर्वाद लेता है वह कभी दुःखी नहीं होता। अतः दुःखी स्त्री-पुरुषों के साथ मीठे नम्र शब्दों में बातचीत करो, यदि वे भूखे हों तो उनको रोटी खिलाओ, प्यासे हों तो पानी पिलाओ, नंगे हों तो उनको वस्त्र दो, यदि रोगी हों तो उनको औषधि दो। स्वयं जितना कर सकते हो उतना स्वयं करो, जितना तुम से न हो सके उतना दूसरों से उनका भला कराने का अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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