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________________ की उत्पत्ति होती रहती है। इसके भक्षण करने का निषेध केवल जैन धर्म में ही नहीं, बल्कि अन्य मतों में भी किया गया है । मधुभक्षण के पाप से नीच गति में गमन होता है तथा नाना प्रकार के दुःखों की प्राप्ति होती है। अतएव इसे सर्वथा त्याग देना योग्य है। जिस प्रकार ये तीन 'मकार' त्यागने योग्य हैं, उसी प्रकार मक्खन भी है। यह महाविकृत, मद को उत्पन्न करने वाला और घृणा रूप है । तैयार होने पर यद्यपि इसमें अन्तर्मुहूर्त के पीछे त्रस जीवों की उत्पत्ति होना शास्त्रों में कहा है, तथापि विकृत होने के कारण आचार्यों ने तीन मकार के समान इसे भी अभक्ष्य और सर्वथा त्यागने योग्य कहा है। (४) पंच उदुम्बर फल-भक्षण त्याग-जो वृक्ष की काठ को फोड़कर फले, वे उदुम्बर कहलाते हैं। यथा (१) गूलर, ऊमर, (२) वट, बड़, (३) प्लक्ष या पाकर, (४) कठूमर या अंजीर, (५) पिप्पल या पीपल । इन फलों में हिलते, चलते-फिरते, उड़ते सैकड़ों जीव आंखों से दिखाई देते हैं। इनका भक्षण हिंसा का कारण और आत्म-परिणाम को मलिन करने वाला है। जिस प्रकार मांसभक्षी के दया नहीं तथा मद्यपी के पवित्रता नहीं, उसी प्रकार पांच उदुम्बर फल खाने वाले के अहिंसा धर्म नहीं होता, अतएव इनका भक्षण तजने योग्य है । इनके सिवाय जिन वृक्षों से दूध निकलता हो, ऐसे क्षीण वृक्षों के फलों का अथवा जिनमें त्रस जीवों की उत्पत्ति होती हो, ऐसे सभी फलों का सूखी, गीली आदि सभी दशाओं में भक्षण सर्वथा त्याज्य है। उसी प्रकार सड़ा-धुना अनाज भी अभक्ष्य है क्योंकि इसमें भी त्रस जीव होने से मांस-भक्षण का दोष आता है। (५) रात्रि-भोजन त्याग-दिन में भोजन करने की अपेक्षा रात्रि को भोजन करने में राग-भाव की उत्कटता, हिंसा और निर्दयता विशेष हाती है। जिस प्रकार रात्रि को भोजन बनाने में असंख्यात जीवों की हिंसा होती है, उसी प्रकार रात्रि को भक्षण करने में भी असंख्यात जीवों की हिंसा होती है । इसी कारण शास्त्रों में रात्रिभोजियों की उपमा निशाचरों से दी है। यहां कोई शंका करे, कि रात्रि को दापक के प्रकाश में भोजन किया जाय तो क्या दोष है ? दीपक के प्रकाश के कारण दीपक पर पतंगादि सूक्ष्म तथा बड़े-बड़े कीड़े उड़ कर आते और भोजन में गिरते हैं । रात्रि-भोजन में अरोक (अनिवारित) महान् हिंसा होती है। रात्रि में अच्छी तरह न दिखने से हिंसा (पाप) के सिवाय शारीरिक नीरोगता में भी बड़ी हानि होती है । मक्खी खा जाने से वमन हो जाता है, कीड़े खा जाने से पेशाब में जलन होती है, केश-भक्षण से स्वर का नाश होता है, जूआं खा जाने से जलोदर रोग हो जाता है, मकड़ी भक्षण से कोढ़ हो जाता है और विषभरा आदि भक्षण से तो आदमी मर तक जाता है। धर्मसंग्रहश्रावकाचार में 'रात्रि भोजन प्रकरण' में स्पष्ट कहा है कि रात्रि में जब देवकर्म, स्नान, दान, होमकर्म नहीं किये जाते हैं (वजित हैं) तो फिर भोजन करना कैसे सम्भव हो सकता है ? कदापि नहीं। वसुनन्दिश्रावकाचार में भी कहा है कि रात्रिभोजी किसा भो प्रतिमा का धारी नहीं हो सकता। इसी कारण यह रात्रि-भाजन उतम जाति, उत्तम धर्म, उत्तम कर्म को दूषित करने वाला, नीच गति को ले जाने वाला है, ऐसा जानकर सर्वथा त्यागने योग्य है। (६) देव-वंदना-वीतराग सर्वज्ञ हितोपदेशी श्री अरहन्त देव के साक्षात् प्रतिबिम्बरूप सच्चे चित्त से अपना पूर्ण पुण्योदय समझकर पुलकित मन से आनन्दित होते हुए दर्शन करने, गुणों के चितवन करने तथा उनको आदर्श मानकर अपने स्वभाव विभावों का चितवन करने से सम्यक्त्व की उत्पत्ति हो सकती है । नित्य पूजन, दर्शन करने से सम्यक्त्व की निर्मलता, धर्म की श्रद्धा, चित्त की शुद्धता तथा धर्म में प्रीति बढ़ती है। इस देव-वंदना का अन्तिम फल मोक्ष है । अतएव मोक्षरूपी महानिधि को प्राप्त करने वाली यह देववंदना अर्थात् जिन-दर्शनपूजादि प्रत्येक धर्मेच्छु पुरुष को अपने कल्याण के निमित्त योग्यतानुसार नित्य नियमित रूप से करना चाहिये तथा शक्ति एवं योग्यता के अनुसार पूजन की सामग्री, एक द्रव्य अथवा अष्ट द्रव्य नित्य अपने घर से ले जाना चाहिये। किसी-किसी ग्रन्थ में प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल इन तीनों समयों में देववंदना प्रतिपादित की गई है तो सन्ध्यावन्दन से कोई रात्रि-पूजन न समझ ले, क्योंकि रात्रि-पूजन का निषेध धर्मसंग्रहश्रावकाचार, वसुनन्दिश्रावकाचारादि ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से किया है तथा प्रत्यक्ष हिंसा का कारण भी है इसलिये सन्ध्या के पूर्वकाल में यथाशक्ति पूजन करना ही सन्ध्यावन्दन है। रात्रि को पूजन का आरम्भ करना अयोग्य और अहिंसामय जिन-धर्म के सर्वथा विरुद्ध है । अतएव रात्रि को केवल दर्शन करना ही योग्य है।। नोट-यह बात भी विशेष ध्यान रखने योग्य है कि मन्दिर में विनय-पूर्वक रहे, यद्वा-तद्वा उठना-बैठना, बोलना, चलना आदि कार्य न करें, क्योंकि शास्त्रों का वाक्य है अन्यस्थाने कृतं पापं, धर्मस्थाने विनश्यति । धर्मस्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ।। (७) जीवदया पालन-सदा सब प्राणी अपने-अपने प्राणों की रक्षा चाहते हैं । जिस प्रकार अपने प्राण अपने को प्रिय हैं उसी प्रकार एकेन्द्री से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्रिय हैं। जिस प्रकार हम जरा-सा भी कष्ट नहीं सह -अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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