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________________ जैन प्राचार-संहिता आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अष्ट मूल गुण __ वृक्ष तभी तक हरे-भरे रहते हैं जब तक कि उनकी जड़ हरी-भरी व दृढ़ बनी रहती है । ऊँचे वृक्षों की जड़ भी छोटे वृक्षों की अपेक्षा गहरी और अधिक मजबूत होती है । गेहूं-चने के पेड़ छोटे होते हैं तो उनकी जड़ भी छोटी होती है। जड़ उखड़ जाने पर वृक्ष की शाखाएं, पत्ते आदि सभी अंग सूख जाते हैं, उस पर फल-फूल लगना बन्द हो जाता है। बड़े-बड़े विशाल मकान भी तभी खड़े रहते हैं जबकि उनकी जड़ (नीव) गहरी और मजबूत होती है। निन्यानवे हजार योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत इसी कारण अब तक अचल खड़ा हुआ है कि उसकी जड़ एक हजार योजन गहरी है। इसी प्रकार धर्माचरण भी तभी दृढ़ निश्चल रहता है जबकि उसके मूल यम, नियम दृढ़ हों। मूल व्रतों का आचरण किये बिना धर्माचरण चिरस्थायी नहीं रहता। घर-परिवार के साथ रहने वाले गृहस्थ व्यक्ति के लिए अपनी आत्मा को उन्नत करने के लिये उन मूलवतों का आचरण करना आवश्यक होता है जो उसके धर्माचरण के मूल आधार हैं । उन आधार-भूत व्रतों को ही जिनवाणी में मूलगुण कहा गया है। मूल गुण ८ होते हैं-१. मद्य त्याग, २. मांस त्याग, ३. मधु त्याग, ४. बड़, ५. पीपल, ६. ऊमर, ७. गूलर, ८. कमर लाग। इसी को ५ उदुम्बर (बिना फूल के होने वाले फल बड़, पीपल, ऊमर, गूलर, कठूमर ) फलों का तथा ३ मकार (मद्य, मांस, मधु) का त्याग कहते हैं । यानी-न खाने योग्य आठ पदार्थों के त्याग रूप आठ मूलगुण हैं। मद्य-त्याग शराब पीने का त्याग करना मद्य-त्याग है । गुड़, जौ, महुआ आदि अनेक वस्तुओं को सड़ाकर शराब तैयार की जाती है। चीजों को सड़ाने से एक तो उनमें असंख्य छोटे कीटाणुओं की उत्पत्ति हो जाती है अथवा यों समझ लीजिये कि पदार्थों का सड़ना बिना कीटाणुओं (छोटे-छोटे जीवों) की उत्पत्ति के होता ही नहीं है। इस कारण शराब अगणित जीवों का पिण्ड है । अतः शराब पीते समय उन असंख्य वस जीवों की हिंसा हुआ करती है। शराब पीने में एक तो महान् त्रस जीव हिंसा का पाप होता है। दूसरे, शराब में बड़ा भारी नशा (मूर्छित करने की शक्ति) भी होती है जिससे कि शराब पीने के बाद विचार-शक्ति एवं विवेक लुप्त हो जाता है जिससे शराब पीने वाले को कुछ होश नहीं रहता कि मैं कहाँ पर पड़ा हूं? क्या कर रहा हूं? कौन मेरे सामने है ? शराब के नशे में शराबी चलते-चलते लड़खड़ा कर गंदे पानी की नालियों में गिर पड़ते हैं, तब भी उन्हें कुछ होश नहीं आता। शराब की गंध पाकर कोई कुत्ता उधर आ जाय तो शराबी का मुख सूंघ कर वह शराबी के मुख में मूत्र भी कर देता है । शराबी को उस बात का भी पता नहीं चलता। शराब पीने से कामवासना भी जाग उठती है । शराबी लोग प्रायः अपनी कामवासना जाग्रत करने के लिये ही शराब पिया करते हैं । वेश्याओं के पास जाने वाले व्यभिचारी लोग प्रायः शराब पी कर नशे में चूर रहते हैं । अनेक घटनाएं ऐसी भी हो जाती हैं कि यदि शराब में चूर शराबी के सामने उसकी अपनी बहिन या पुत्री भी आ जावे तो वह बदहोश उस बहिन या पुत्री को ही अपनी कामवासना का शिकार बनाने का प्रयत्न करता है। शराब पीने का व्यसन एक ऐसा दुर्व्यसन है जो कि एक बार लग जाने पर फिर छूटता नहीं । शराब पीने की आदत जिसको पड़ जाती है वह अपनी सारी सम्पत्ति नष्ट कर देता है, बिल्कुल बर्बाद हो जाता है। शराब का प्रभाव शरीर पर भी बहुत बुरा पड़ता है, अत: शराब शरीर का स्वास्थ्य भी बिगाड़ देती है। इस तरह शराब किसी भी तरह लाभदायक नहीं। धर्म, विवेक, कुलाचार, धन, स्वास्थ्य आदि सभी को हानि पहुंचाती है। इस कारण शराब का त्याग किये बिना धर्माचरण की जड़ नहीं जम सकती । कितने दुःख की बात है कि इस युग के सभ्य शिक्षित लोग आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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