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________________ वर्तमान अपराध के सिवाय भी मुझको जो कुछ भोगना पड़ता है, वह मेरे पूर्घकृत कर्म का ही फल है, तो वह पुराने कर्ज को चुकाने वाले मनुष्य की तरह शान्त-भाव से कष्ट को सहन कर लेगा । और यदि यह मनुष्य इतना भी जानता हो कि सहनशीलता से पुराना कर्ज चुकाया जा सकता है तथा उसी से भविष्य के लिये नीति की समृद्धि एकत्रित की जा सकती है, तो उसको भलाई के रास्ते पर चलने को प्रेरणा आप ही आप होगी। अच्छा या बुरा कोई भी कर्म नष्ट नहीं होता । यह नीति शास्त्र का मत और पदार्थ - शास्त्र का बल-संरक्षण सम्बन्धी मत समान ही है। दोनों मतों का आशय यही है कि किसी का नाश नहीं होता। किसी भी नीति शिक्षा के अस्तित्व के सम्बन्ध में कितनी ही शंका क्यों न हो, पर यह निर्विवाद सिद्ध है कि कर्म - सिद्धान्त सबसे अधिक जगह माना गया है। उससे लाखों मनुष्यों के कष्ट कम हुए हैं और उसी मत से मनुष्य को वर्तमान संकट झेलने की शक्ति पैदा करने तथा भावी जीवन को सुधारने में भी उत्तेजना, प्रोत्साहन और आत्मिक बल मिलता है । सल्लेखना आत्मा अजर-अमर है । अतः वह न कभी उत्पन्न होता है, न मरता है। किन्तु यह आत्मा भौतिक शरीर को अपना निवास बनाकर कुछ दिन उसमें रहता है। उस शरीर का निर्माण माता के गर्भ में नौ मास तक सम्पन्न हो जाता है, तदनन्तर वह बाह्य जगत् में आता है, जिसे जनता 'जन्म' कहती है । तदनन्तर उस शरीर के आकार-प्रकार में शनैः शनैः वृद्धि होती है और वह शैशवकाल, किशोरावस्था समाप्त करके यौवन दशा में पहुंच जाता है जहां कि उस भौतिक शरीर का पूर्ण विकास होकर वृद्धि समाप्त हो जाती है । तदनन्तर दिन के तीसरे पहर की तरह प्रौढ़ दशा में शरीर क्षीण होने लगता है और अपने चौथेपन वृद्ध अवस्था में पहुंच कर शरीर वृक्ष के पके हुए पत्ते की तरह जीर्ण-शीर्ण हो जाता है, तथा वह किसी रोग आदि साधारण आघात से इस तरह निर्जीव निश्चेष्ट होकर सदा के लिये गिर जाता है जैसा कि वायु के साधारण झकोरे से भी पका हुआ पत्ता वृक्ष से टूट कर गिर जाता है। जन साधारण की भाषा में शरीर की इस निष्क्रिय दशा का नाम 'मृत्यु' है। आध्यात्मिक भाषा में इसे आत्मा द्वारा शरीर-परित्याग या नूतन शरीर में आत्म-प्रवेश कहते हैं । वैसे तो शरीर की मृत्यु उसी दिन से प्रारम्भ हो जाती है जिस दिन कि उसका जन्म होता है। टूटे हुए घड़े में से जिस तरह एक-एक बूंद पानी टपक टपक कर कम होता जाता है उसी तरह शरीर भी क्षण-क्षण में क्षीण होता हुआ मृत्यु के निकट पहुंच जाता है । जीवन की अवधि कम होती जाती है, परन्तु जनता की स्थूल दृष्टि उसे नहीं देख पाती । इस शारीरिक जन्म-मृत्यु को संसार भूल से आत्मा या जीव की जन्म-मृत्यु कहने लगा है । -- भोगी मनुष्य अपने जीवन के अमूल्य क्षण शरीर की सेवा में - विषयभोगो में बिता देता है। आत्मा को स्वस्थ निराकुल करने की ओर उसका ध्यान नहीं जाता। इसी शारीरिक मोह के कारण वह सदा मृत्यु से भयभीत बना रहता है । परन्तु योगी जन अपने नर-जीवन के अमूल्य क्षणों को आत्मशुद्धि, आत्मविकास या आत्मसाधना में व्यतीत करता है । उसको शारीरिक पतन की चिन्ता नहीं होती । उसे तो अपने आत्मा के पतन की चिन्ता रहती है। इसी कारण वह आत्मा के पतन के कारणों क्रोध, मद, माया, लोभ, काम, मोह आदि से सचेत रहकर आत्मा को उनसे बचाता रहता है, सदा अपना समय आत्मचिन्तन परमात्मचिन्तन, ध्यान, स्वाध्याय, शास्त्र - अभ्यास आदि में लगाता है। इसी कारण योगी अपने जीवन में आत्मा की अमूल्य निधि- -क्षमा, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, नम्रता, निर्लोभ, समता, ज्ञान आदि को बहुत बड़ी मात्रा में एकत्र कर लेता है। उसकी इस अमूल्य निधि को काम, क्रोध, लोभ आदि चोर न चुरा ले जावें -- इसके लिए वह सतत सचेत रहता है। रात्रि के समय भी इसी कारण वह बहुत थोड़ी नींद लेता है । जिस समय इस भौतिक शरीर की मृत्यु का क्षण निकट आता दीखता है, तब मोही जीव अपना शरीर छूटता देख व्याकुल होता है, भयभीत हो जाता है, दुःखी होता है और उसे बचाने के लिये सभी संभव प्रयत्न करता है । परन्तु योगी उस समय भयभीत और व्याकुल या दुःखी नहीं होता क्योंकि वह जीवन-मरण के यथार्थ रहस्य को समझता है । शरीर के जाने में उसे अपनी हानि नजर नहीं आती। उसके सामने तो उस समय आत्मनिधि की सुरक्षा का प्रश्न महत्त्वपूर्ण होता है। वह नहीं चाहता कि जीवन में तपस्या के कारण जो आत्मशुद्धि की है, उस पर क्रोध, शोक, मोह आदि का मैल फिर छा जाये । अतः वह उस समय और भी जागरूक होकर शारीरिक चिन्ता और क्रोध, मद, मोह आदि कषायों से दूर रह कर आत्मसाधना में निरत हो जाता है। इस तरह आत्मशुद्धि की भावना से अपने शरीर को तथा क्रोध आदि कषायों को कृश करते जाना सल्लेखना है । ३२ Jain Education International --- [ सत्-आत्मशुद्धि के शुभ उद्देश्य से लेखना शरीर तथा कथाय का कुश करना सल्लेखना) = For Private & Personal Use Only आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्यः www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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