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साथ तलवार, भाला, गदा, धनुष आदि हथियार लिये हुए हैं। ऐसे देवों की आराधना से आत्मा में राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, भय आदि की शिक्षा आराधक को मिल सकती है। राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि भाव संसारचक्र में ही डाले रखते हैं। अत: संसार से छूटकर अजर-अमर बनने के लिये तो वैसा ही देव उपयोगी हो सकता है जो राग, द्वेष, क्रोध आदि से मुक्त हो। ऐसे देव तो अर्हन्त ही हैं । अतः जो संसार-जाल से छूटकर अजर-अमर बनना चाहता है वह अर्हन्त भगवान् की आराधना करे।
श्री रामचन्द्र जी ने संसार से विरक्त होकर 'जिनेन्द्र' (अर्हन्त) की तरह अपनी आत्मा में शान्त पाने की इच्छा प्रगट की। यह बात योगवाशिष्ठ (१५/८) के निम्नलिखित श्लोक से प्रगट होती है :
नाहं रामो न मे बांछा, भावेष च न मे मनः ।
शान्तिमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव 'जिनो' यथा ॥ इसके सिवाय संसार के जितने भी अन्य देव हैं वे अपने भक्त (सेवक) को सदा सेवक ही बनाये रखते हैं। कभी अपने समान नहीं बनाते । परन्तु अर्हन्त भगवान् की जो व्यक्ति सेवा-भक्ति करता है वह कुछ समय बाद खुद अर्हन्त परमात्मा बन जाता है। यानी-अर्हन्त देव अपने भक्त को अपने-जैसा भगवान् बना देते हैं।
इसमें भी विशेषता यह है कि अर्हन्त देव स्वयं ऐसा नहीं करते । यदि कोई मनुष्य अर्हन्त भगवान् की निन्दा करे तो उससे अप्रसन्न होकर उस निन्दक का कुछ अहित नहीं करते और न अपनी भक्ति-पूजा-स्तुति करने वाले पर प्रसन्न होकर उसको कुछ पारितोषिक देते हैं क्योंकि वे तो पूर्ण वीतराग हैं। ऐसा होते हुए भी अर्हन्त भगवान् की निन्दा करने वाला व्यक्ति अपने बुरे परिणामों से अशुभ कर्म बांध लेता है, जिससे उसको महान् संकट व दुःख प्राप्त होता है और भक्ति करने वाला शुभ कर्म का उपार्जन करता है। इस कारण उसको सब तरह की सुख-सामग्री स्वयमेव मिल जाती है। ऐसा अपूर्व महत्त्व संसार में और किसी देव में नहीं मिलता।
इस कारण सुख प्राप्त करने के लिये अर्हन्त भगवान् की भक्ति अवश्य करनी चाहिये, क्योंकि जो जैसा बनना चाहता है वह वैसे ही व्यक्ति की सेवा-भक्ति करता है और भक्ति करते-करते वैसा ही बन जाता है। विद्या लेने के लिये विद्यागुरु की भक्ति की जाती है और जौहरी बनने के लिये जौहरी की सेवा की जाती है। तदनुसार अनन्त सुखी, अनन्त ज्ञानी बनने के लिये अर्हन्त भगवान् की भक्ति आवश्यक है।
जैसे सिंह का ज्ञान कराने के लिये सिंह की मूर्ति से काम लिया जाता है। उसकी मूर्ति से बच्चों को सिंह की सारी बातें बतला दी जाती हैं, इसी तरह अर्हन्त भगवान् के पूर्णमुक्त (सिद्ध) हो जाने पर अर्हन्त भगवान् का बोध उनकी प्रतिमा से होता है। अर्हन्त भगवान् जिस तरह पूर्ण शान्त वीतराग थे, ठीक वही बात उनकी प्रतिमा से प्रगट होती है। अर्हन्त प्रतिमा के मुख और नेत्रों से यह बात प्रगट होती है कि न इनको किसी पर क्रोध है, न अभिमान । अर्हन्त जिस तरह निर्भय, निर्विकार, वीतराग थे, वही मूक शिक्षा अर्हन्त भगवान् की मूर्ति से प्राप्त होती है। धीरता, गम्भीरता का प्रभाव भी अर्हन्त की मूर्ति के दर्शन से आत्मा पर पड़ता है।
सारांश यह है कि अर्हन्त भगवान् की मूर्ति पर न कुछ भूषण हैं, न वस्त्र हैं, न कोई शस्त्र । स्वात्मलीनता तथा संसार से विरक्ति उस मूर्ति से झलकती है । दर्शन करते ही आत्मा में शान्ति की छाया पड़ती है। अतः निरञ्जन, निर्विकार, निर्भय बनने के लिये अर्हन्त परमात्मा का दर्शन करना चाहिये ।
जिस तरह किसी वेश्या का चित्र देखते ही आत्मा में कामवासना जाग उठती है और किसी वीर पहलवान शूर योद्धा की मूर्ति देखते ही वीरता के भाव जाग्रत हो उठते हैं; देशभक्त धर्मात्मा का चित्र देखने पर मन में देशभक्ति और धर्म-आचरण की लहर लहराने लगती है; इसी तरह अर्हन्त भगवान् की मूर्ति का दर्शन करने से वीतराग, शान्त भावना जाग्रत हो उठती है। संसार की मोहमाया से विराग भाव पैदा होने लगता है।
सिनेमा में स्त्री पुरुषों के नाटक के चित्र होते हैं। इस तरह फिल्म जड़ अचेतन वस्तु है किन्तु उसको देखने से दर्शकों के हृदय पर उस अजीब जड़ चित्र का कैसा गहरा असर पड़ता है। देखने वालों का चित्त कभी करुणाजनक नजारा देखकर करुणा से भर जाता है, कभी सिनेमा देखने वाले स्त्री-पुरुष उन जड चित्रों को देखकर रोने लगते हैं, तो कभी हास्यजनक दृश्य से हँसने लगते हैं। सिनेमा देखकर ही लड़ना, भिड़ना, चोरी करना आदि भी सीख लेते हैं।
अमृत-कण
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