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जैन दर्शन एवं भक्ति
जीवन की धारा प्रवाहित करता है । व्यापारी अपने समय, उद्योगी पुरुष किसी उद्योग की नींव भी अपने सामने किसी
प्रत्येक मनुष्य अपना कुछ न कुछ लक्ष्य निश्चित करके अपने ममझ और परिस्थिति के अनुकूल लक्ष्य बनाकर व्यापार प्रारम्भ करता है। लक्ष्य को रखकर डालता है। गर्भ धारण तथा प्रसव की महती वेदना सहन करके भी जो पुत्र को जन्म देती है, वह भी अपना कोई लक्ष्य रखकर ही पुत्र का मुख देखते ही अपनी समस्त पीड़ा भूल जाती है, तदनन्तर उसका महान् यत्न और सावधानी से पालन-पोषण उसके इस अनुपम त्याग का भी कुछ उद्देश्य होता परिवार को समृद्ध बनावे, मेरे लिये सुख - सामग्री
करती है। अपना शारीरिक बल क्षीण करके उसे अपनी छाती का दूध पिलाती है। है । उसकी भावना होता है कि मेरा पुत्र बड़ा होकर अपने कुल का उद्धार करे, जुटावे । पिता स्वयं अनेक कष्टों को सहर्ष स्वीकार करके अपने पुत्र को शिक्षित बनाने में अपनी शक्ति जुटा देता है। उसका भी उद्देश्य होता है कि मेरा पुत्र अच्छा विद्वान् बनकर अपना तथा मेरा नाम प्रसिद्ध करे तथा जीवन की अन्तिम घड़ियों में मेरे असमर्थ शरीर को कुछ सहायता प्रदान करे ।
एक विद्यार्थी पाठशाला में प्रविष्ट होकर अ आ इ ई पढ़ना प्रारम्भ करता है। अपना परम प्रिय खेल खेलना छोड़कर ६ 'घन्टे के बन्दीघर में अपने आपको सहर्ष डाल देता है। अपने अध्यापक की डांट-फटकार और थप्पड़-बेंत की मार को भी सहन करता है, अक्षर ज्ञान में मन लगाता है। वह छोटा बच्चा भी अपने हृदय में अन्य विद्वानों के समान महान् विद्वान् बनने की उच्च भावना से ही विद्यार्थी जीवन प्रारम्भ करता है ।
आचार्य रत्न श्री देशभषण जी महाराज
एक किसान खेत को बड़े परिश्रम से जोतता है। अपने पास रखते हुए सबसे अच्छे अन्न को स्वयं न खाकर उसे मिट्टी के खेत में बिखेर देता है। फिर उस मिट्टी को बहरे कुएं से पानी निकाल निकाल कर अनेक बार सोचता है। सदियों की ठण्डी रातों में खड़ा रहता है। वर्षा ऋतु में खुले मैदान में फावड़ा लेकर अपने खेत के अनेक चक्कर लगाता है। गर्मियों में दोपहर की धूप और भयानक लू की कुछ भी चिन्ता न करके उस खेत के काम में लगा रहता है। इतना महान् प्रयास करने का उसका उद्देश्य यही होता है कि अपने बोये हुए अन्न के एक-एक दाने के बदले में अन्न के हजारों दाने प्राप्त करू, वर्ष भर तक अपने परिवार को भोजन खिलाऊं, अपने पशुओं को भूसा देता रहूं और अतिरिक्त अन्न तथा भूसे को बेचकर अपनी अन्य आवश्यकताओं को पूर्ण करता रहूं। इस तरह अपनी-अपनी समझ, शक्ति, परिस्थितियों के अनुसार अपना कोई न कोई लक्ष्य बनाकर ही प्रत्येक प्राणी कोई कार्य करता है ।
इस प्रकार के सभी लक्ष्य सांसारिक दृष्टिकोण से होते हैं। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से आत्मशुद्धि का लक्ष्य इससे भिन्न श्रेणी का हुआ करता है । जो व्यक्ति अपनी आत्मा का उत्थान करना चाहते हैं वे अपना अन्तिम लक्ष्य संसार के आवागमन (जन्ममरण) से छूटकर संसार से पूर्ण मुक्ति प्राप्त करने का रखते हैं । इस लक्ष्य को सिद्ध करने के लिये वे अपना आदर्श पंच परमेष्ठियों को रखते हैं।
'परमेष्ठी
आत्मशुद्धि द्वारा जो परम (सर्वोच्च) पद में स्थित हैं उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। शासन व्यवस्था की दृष्टि से जमींदार, जागीरदार, राजा महाराजा, मंडलेश्वर सम्राद, चकवर्ती एक-दूसरे से महान होते हैं परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से चक्रवर्ती भी देवों के स्वामी इन्द्र भी, परमेष्ठियों को पूज्य समझकर उनको नमस्कार करते हैं। अतः उनका परमेष्ठी नाम सार्थक है ।
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परमेष्ठी के ५ भेद हैं- (१) महंत, (२) सिद्ध, (३) आचार्य, (४) उपाध्याय, (५) साधु इनमें जहंत भगवान् जीवन्मुक्त परमात्मा है सिद्ध भगवान् पूर्णमुक्त परमात्मा है। अर्हन्त सिद्ध भगवान् के पदचिह्नों पर चलने वाले, संसार से विरक्त,
अमृत-कण
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