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राजनीति, वस्त्र बुनना, नाट्यकला, चित्रकला आदि अनेक कलाएं सिखलाई। अपनी बड़ी पुत्री ब्राह्मी को अक्षर-विद्या और छोटी पुत्री सुन्दरी को अंकविद्या सिखलाई। इस तरह गृहस्य दशा में उन्होंने लौकिक विद्याओं की शिक्षा सर्वसाधारण को दी। फिर जब वे संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर योगी बने तब एक हजार वर्ष तक अनेक कठिन तपस्याएं करने के बाद वे सर्वज्ञ वीतराग जीवन्मुक्त परमात्मा बन गये । राग, द्वेष, क्रोध, मद, मोह, माया, काम आदि विकारों को आत्मा से दूर कर दिया तथा आत्मगुण घातक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चारों कर्मों पर विजय प्राप्त कर ली । उक्त दुर्भावों और कर्मों को जीत लेने के कारण भगवान् ऋषभनाथ का उपाधिनाम 'जिन' (जयति इति जिनः यानी जीतने वाला) प्रसिद्ध हो गया।
उस जीवन्मुक्त 'जिन अवस्था में उन्होंने विशाल समवशरण नामक व्याख्यान-सभा द्वारा समस्त सुर, नर, पशु, पक्षी आदि जीवों को कर्मों तथा दुर्भावों से आत्मा को शुद्ध करने वाला अनुभूत मार्ग (धर्म) का उपदेश दिया, जिसका आचरण करके अनेक मनुष्यों ने दीक्षा लेकर परमात्मा पद को प्राप्त किया। जो मुनि न बन सकते थे उनके लिये गृहस्थ अवस्था में रहते हुए उससे नीची श्रेणी आचरण बतलाया । इस कारण उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म का नाम उनके प्रसिद्ध नाम 'जिन' के अनुसार 'जैनधर्म' विख्यात हुआ ।
सुगम
इस तरह भगवान् ऋषभनाथ लौकिक कलाओं के सबसे प्रथम शिक्षक हुए और सबसे पहले वे योगी बने तथा अपने योग में पूर्ण सफल होकर इस युग की अपेक्षा सबसे प्रथम धर्म प्रचारक आद्य तीर्थंकर हुए। आत्मा को महात्मा, तदनन्तर परमात्मा बनाने की विधि बतलाई । इस प्रकार जैनधर्म का उदय जगत् में अन्य सब धर्मों से पहले हुआ है। इस कारण संसार का सबसे प्राचीन धर्म जैनधर्म है।
आत्मा को पूर्ण शुद्ध करके परमात्मा बनाने का विधान केवल जैनधर्म ने बतलाया है । अन्य धर्मों में परमात्मा केवल एक व्यक्ति को माना है, उनके सिद्धान्त के अनुसार परमात्मा अन्य कोई नहीं बन सकता वह चाहे जितनी भी तपस्या क्यों न करे । परन्तु जैनवर्म ने आत्मा का सामान्य स्वरूप बतलाकर संसारी आत्मा को विशेष रूप से खुलासा करके बतलाया कि आत्मा संसार में कर्मबन्धन के कारण अशुद्ध, विकृत, परतन्त्र होकर विविध योनियों में जन्म-मरण करता हुआ घूमता फिरता है । किस तरह कर्मबन्धन बनता है ? कितने उसके भेद हैं, वह जीव को फल किस तरह देता है, किस तरह वह कम होता है, किस तरह बढ़ता है, वह कर्म-बन्धन जीव के किस-किस गुण को क्या हानि पहुँचाता है, किस तरह उसका वेग हलका होता है, किस तरह कर्म छूटता है ? इत्यादि कर्म- सिद्धान्त बड़े विस्तार के साथ जैन दर्शन में बतलाया गया है। उस सिद्धान्त के अनुसार जो व्यक्ति कर्म दूर करने की जितनी कोशिश करता है। उतना ही शुद्ध उसका आत्मा होता है। घर बार छोड़ साधु-दीक्षा लेकर जो अपना सारा समय आत्म शुद्धि के लिये ध्यान - स्वाध्याय आदि में लगाते हैं; काम क्रोध आदि को बहुत कुछ शान्त कर देते हैं, वे आत्मा से महात्मा बन जाते हैं ।
वे ही महात्मा आत्म ध्यान करते-करते जब अपने कर्मों को निर्मूल नष्ट करके अपना आत्मा पूर्ण शुद्ध बना लेते हैं तब उनके समस्त आत्मग कर्म-आवरण हट जाने से पूर्ण विकसित हो जाते हैं अतः वे सर्वस, द्रष्टा, पूर्ण सुखी, निरंजन, निविकार परमात्मा सदा के लिये बन जाते हैं। इस तरह आत्मा, महात्मा और परमात्मा आत्मा की ही तीन श्रेणियाँ हैं । अतः जितने भी आत्मा पूर्ण ज्ञानी, पूर्ण सुखी व निविहार बन चुके है वे सभी परमात्मा है इस तरह आत्मा के पूर्ण विकास का स्पष्ट विवरण जैनधर्म के सिवाय अन्य किसी दर्शन ने नहीं बतलाया ।
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हिन्दुस्तान टाइम्स के सम्पादक, गांधी जी के सुपुत्र श्री देवदास गांधी जब इंगलैण्ड गये तो वहां के प्रसिद्ध विचारशील लेखक जार्ज बनांशों से मिले बातचीत करते हुए देवीदास गांधी ने बर्नार्ड शॉ से पूछा कि आपको सबसे अधिक प्रिय धर्म कौन-सा प्रतीत होता है ? बर्नार्ड शॉ ने उत्तर दिया कि "जैनधर्म" । देवदासजी ने इसका कारण पूछा तो जार्ज बर्नार्ड शॉ ने उत्तर दिया कि-जैनधर्म में आत्मा की पूर्ण उत्पति तथा पूर्ण विकास की प्रक्रिया बताई गई है - इस कारण मुझे जैनधर्म सबसे अधिक प्रिय है ।
जैनधर्म विश्वहितकारी धर्म है। संसार के प्रचलित धर्मों में किसी धर्म में तो केवल अपने धर्मानुयायियों की रक्षा करने का ही उपदेश है । जो नर नारी उस धर्म के अनुयायी न हों उनको अपना शत्रु समझ कर या तो उन्हें मार कर नष्ट करने का उपदेश दिया है। या बलपूर्वक उन्हें अपना धर्म मनवाने की शिक्षा दी है। दूसरे धर्मानुयायियों के साथ कुछ कम या कुछ अधिक कठोर बर्ताव करने का उपदेश प्रायः सभी धर्मों (जैन धर्म के सिवाय) के ग्रन्थों में दिया गया है। किसी धर्म ने यदि दया भाव का क्षेत्र कुछ बढ़ाया है तो समस्त मनुष्यों की रक्षा करने का विधान उसने कर दिया है। किसी धर्म ने मनुष्य के सिवाय कुछ काम आने योग्य पशुओं की रक्षा करने का विधान कर दिया है। अपने परमात्मा देवी देवताओं का प्रसाद ( प्रसन्नता) पाने के लिये अनेक धर्मों में गाय, बकरा, भैंसा, सुअर, मुर्गा, घोड़ा यहाँ तक कि मनुष्य को भी मार कर भेंट करने का उपदेश दिया है। सभी पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, आदि जीवों की रक्षा करने का विधान किसी भी धर्म में नहीं पाया जाता। यह प्राणी मात्र पर दया करने का उपदेश जैनधर्म में ही पाया जाता है। कोई भी प्राणी वह चाहे सर्प, सिंह, भेड़िया, बीछू आदि दुष्ट प्रकृति का हो अथवा कबूतर, खरगोश, हिरण आदि भोली प्रकृति का हो, हाथी, ऊँट
आचार्य रत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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