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________________ रह सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि अपने कर्मों के कारण ही मैं इस बंधन में पड़ा हूँ। समय आने पर इससे मुक्त हो जाऊंगा। सांसारिक प्रलोभनों से मुक्त रहने के लिए मन को संयमित रखना अत्यन्त आवश्यक है; किन्तु मन का सयमन किस प्रकार संभव है ? प्राचीन आचार्यों ने अपने ग्रंथों में यह बात बतलायी है कि यदि हम संसार के कष्टों से मुक्त होना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें मन को काबू में करना पड़ेगा। इसके लिए हमारे यहाँ इस प्रकार के संयम माने गए हैं-मन-मुडन, तन-मुंडन, इन्द्रिय-मुंडन; काषायमुंडन, हत-पाव-मुंडन, शिर-मुंडन आदि । मन को एकाग्र करने के लिए पद्मस्थ ध्यान का विधान भी आचार्यों ने बतलाया है। प्रत्येक साधक को णमोकार मंत्र का जाप करना चाहिए । मन को एकाग्र करके उसमें लगाना चाहिए। इस मंत्र के प्रत्येक अक्षर को अपने मन में धारण करना चाहिए। इसके साथ-साथ भगवान के भजन, पूजन तथा महापुरुषों की कथा-वार्ता के श्रवण में भी मन को एकाग्र करना चाहिए । प्रत्येक भक्त को प्रार्थना करनी चाहिए कि हे भगवान् ! मुझे कुछ नहीं चाहिए। मेरी तो केवल यही कामना है कि आपके चरणों में हमेशा मेरी भावना बनी रहे । आपकी शास्त्र-शुचि मेरे मन में रहे । साधुओं की संगति बनी रहे। सत्पुरुषों का गुणगान और उनकी कथा मेरे मन में बनी रहे । मैं सभी के साथ हितमित वचन बोलू । किसी का मन दुःखाने की भावना न रहे । मेरा मन हमेशा एकाग्र रहे। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को मनन करना चाहिए। इसके लिए नियमित अभ्यास अत्यंत आवश्यक है । 0 किसी भी कर्म को करने के उपरान्त मनुष्य के मन में कभी-कभी उस कर्म के कर्ता होने का जो अहंकार उत्पन्न हो जाता है, उस अहंकार से मुक्त होने का सबसे सरल उपाय कौन-सा है ? जैन-शास्त्र में २५ मलदोष माने गए हैं । संसार में सबसे खतरनाक अहंकार है। इस अहंकार का त्याग विवेक और ज्ञान द्वारा ही सम्भव है । ज्ञानी पुरुष ही यह सोचता है कि तीर्थकर का ज्ञान कितना है? मेरा ज्ञान कितना है ? महाराज की सम्पत्ति कहाँ ? मेरी सम्पत्ति कहाँ ? महाराज ने क्यों त्याग किया? यह अहंकार अकल्याणकारी है, इसीलिए उन्होंने भी अहंकार का त्याग किया। मैं तुच्छ हूं। मेरे अंदर वह ज्ञान कहाँ ? जब ज्ञानी व्यक्ति इस प्रकार से विचार करता है, तब उसका अहंकार स्वतः नष्ट हो जाता है। जाति एक कर्म है, स्वभाव नहीं । आज मनुष्य-जन्म है। कल क्या होगा? कौन-कौन-सी योनि में जन्म हुआ? मनुष्य-रूप में आने से पहले कहाँ-कहाँ भटकता रहा ? तब -इस प्रकार का चिंतन और ज्ञान-प्राप्ति भी अहंकार-नाश के लिए आवश्यक है। यह ज्ञान प्राप्त करके ज्ञानी व्यक्ति-व्यक्ति अहं' और 'जाति अहं'-किसी भी प्रकार का अहंकार नहीं करेगा । केवल अज्ञानी ही अहंकार करेगा। एक बार दो व्यक्ति एक सेठ के घर भोजन करने के लिए गए। दोनों अहंकारी थे। वे दोनों अपने आप को परम ज्ञानी और दूसरे को महामूर्ख समझते थे। भोजन से पूर्व एक ने सेठ से कहा कि दूसरा तो केवल गधा है । दूसरे ने पहले के बारे में कहा कि वह तो बस बैल है। जब दोनों खाने के लिए बैठे तो सेठ ने दोनों पंडितों के सामने घास रख दी और कहा कि आप दोनों ने एक दूसरे को गधा और बैल कहा, इसीलिए मैंने आप लोगों के भोजन के लिए ऐसा प्रबंध किया है। इस बात को सुनकर दोनों पंडितों का आपस का अहंकार दूर हो गया। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को सोचना चाहिए कि यह अहंकार ही नीच गति का कारण है। मनुष्य यदि शाश्वत रहे तो अहंकार करे, जब मनुष्य शाश्वत ही नहीं, तब अहंकार भी नहीं। इस सच्चाई को जानकर ज्ञानी व्यक्ति कभी भी अहंकार नहीं करेगा। महाराज ! आप श्रमण संस्कृति के संवाहक हैं । श्रमण संस्कृति के रहस्यात्मक भेदों-प्रभेदों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए आपने अनेक ग्रंथों की रचना की है। आपके इन कार्यों से आज सारा भारतवर्ष लाभान्वित हो रहा है । हम चाहते हैं कि आपके ज्ञानविज्ञान का प्रकाश सारे संसार को प्राप्त हो । आने वाले युग-युगों तक इस संसार के दुःखी, सन्तप्त प्राणी आपके ज्ञान के प्रकाश में अपने मार्ग को खोज सकें। इसीलिए आपके दरबार में हम आज के इंसान की समस्याओं को उठा रहे हैं । आज का मानव मिथ्याडम्बरों के मायाजाल में उलझ गया है । अब कोई अलौकिक दिव्य शक्ति ही उसे रास्ता दिखा सकती है। हम चाहते हैं कि आप समय के संत्रास से पीड़ित मानवों को अपने वचनामृत से पुनर्जीवन प्रदान करें। महाराज के समागम से उपस्थित जन-समुदाय की ओर से श्रद्धा-विश्वास प्रकट करते हुए मैंने कहा, और फिर पूछा महाराज ! संसार के सभी धर्म हमें सद्भाव एवं एकता का संदेश देते हैं। परन्तु, कभी-कभी धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता कालजयी व्यक्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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