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समस्या और समाधान
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज
[डॉ. महेन्द्र कुमार 'निर्दोष' द्वारा लिया गया साक्षात्कार पौराणिक काल से ही दिल्ली राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना की साधना-स्थली रही है । आज भी यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण का नियामक केन्द्र है । आधुनिक युग के अनेक क्रांतद्रष्टा मनीषियों ने इस क्षेत्र को अपने वचनामृत से पावनता प्रदान की है। आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज का जन्म कन्नड़ प्रदेश में हुआ; परन्तु उनका जीवन देश-काल की संकुचित सीमाओं से सर्वथा मुक्त है। उनका कालजयी व्यक्तित्व विश्वव्यापी है । श्रमण संस्कृति के शाश्वत संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के लिए वे निरन्तर विहार करते रहते हैं
और संस्कृति के प्रचारार्थ निरन्तर गतिशील रहना ही उनके जीवन का लक्ष्य है। दिल्ली में वे अनेक बार विहार कर चुके हैं। इस वर्ष (सन् १९८२) भी वे मंगल-विहार करते हुए दिल्ली पधारे। जब मैंने पहली बार महाराज को देखा, तब वे अपने आसन पर ध्यानमग्न थे, उनके चेहरे पर अपूर्व तेज था । दिगम्बर होते हुए भी वे दिव्य विभूतियों से परिपूर्ण थे। मेरे हृदय में सहसा एक विलक्षण अभिलाषा उत्पन्न हुई कि किसी प्रकार महाराज से अनुरोध किया जाए कि वे अपनी मधुमयी वाणी द्वारा आज के भौतिकतावादी मानव की संतप्त जिज्ञासाओं को शांत करें। श्री सुमतप्रसाद जैन पर महाराज जी की सदैव अनुकम्पा रही है। इसीलिए मैंने सुमतजी का आश्रय ग्रहण किया और उन्होंने महाराज के समक्ष मेरे मनोभावों को श्रद्धापूर्वक अभिव्यक्त किया। महाराजश्री ने वात्सल्यपूर्ण नेत्रों से हम सबकी ओर देखा और वे हमारे प्रश्नों के समाधान के लिए सहर्ष प्रस्तुत हो गए।
महाराज के समक्ष आस्था-विश्वासपूर्वक प्रणत होते हुए मैंने कहा कि हे प्रभो ! आप श्रमण संस्कृति के संवाहक हैं। श्रमण संस्कृति के रहस्यात्मक भेदों-प्रभेदों को जन-जन तक प्रचारित करने के लिए आपने अनेक ग्रंथों की संरचना की है। अपनी विलक्षण प्रतिभा के द्वारा जैन-दर्शन के निगूढ़ तत्त्वों को आपने जनसाधारण की भाषा में व्याख्यायित किया है। आपके इस सृजन-संकल्प से सम्पूर्ण भारतवर्ष लाभान्वित हो रहा है । हमारी दृढ़ आकांक्षा है कि आपकी क्रांतदर्शी प्रतिभा का आलोक युग-युगों तक संतप्त मानव की अंतरात्मा को परितृप्ति प्रदान करता रहे। इसीलिए हम आधुनिक मानव की उलझी हुई संवेदनाओं का समाधान आप से प्राप्त करना चाहते हैं।
महाराजश्री के सामने अपनी जिज्ञासाओं को प्रस्तुत करते हुए मैंने कहा कि हे आचार्यवर ! आज का मानव राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक मिथ्याडम्बरों के मायाजाल में इस प्रकार से उलझ गया है कि उसे अपने निर्वाण का कोई भी मार्ग दिखाई नहीं देता। इस समय तो कोई अलौकिक दिव्य शक्ति ही उसके क्षत-विक्षत मानव को आत्मविश्रांति प्रदान कर सकती है। इसीलिए आप ही समय-संत्रास के आघात से पीड़ित मानव को अपने वचनामृत से पुनर्जीवन प्रदान करें।
- आधुनिक मानव के समस्त क्लेश-द्वेष का मूल कारण है भौतिकता के प्रति अत्यधिक आग्रह। भारतवर्ष भी पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से भौतिकता के व्यामोह में फंसता चला जा रहा है। आपके विचार से लोक-जीवन का निर्वाह करते हुए भी भौतिकता के इस बंधन से कैसे मुक्त रहा जा सकता है ?
आचार्यश्री ने इस संसार के समस्त क्लेशद्वेष से मुक्ति प्राप्त करने के लिए तीन सूत्र बतलाये-(१) धर्म के शाश्वत मार्ग का संधान, (२) मन की शुद्धि, तथा (३) जीवन में उदात्त संस्कारों का सद्भाव ।
आचार्य समंतभद्र की वाणी को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा “आत्म-कल्याण का मार्ग अपने पास ही है। तुम जिस मार्ग से सुख और शांति चाहते हो, वह सुख देने वाला मार्ग अपने पास है। तुम उसे अपने मन के अंदर झाँककर पा सकते हो।"
"वह मार्ग धर्म का मार्ग है। धर्म किसको कहते हैं ? संसारी प्राणियों को दुःख के खड्ड से उठाकर निर्वाण के मार्ग की ओर उन्मुख करना ही धर्म है। धर्म से कर्म का नाश होकर संसार रूपी दुःख का नाश होता है । धर्म का मार्ग परम्परा से चला जा रहा है ; परन्तु आज का जीव पाश्चात्य संस्कारों के कारण उस मार्ग को भूल चुका है। वह मार्ग उसके भीतर है, पर वह उसे नहीं जानता। यही उसके कष्ट का कारण है ।"
कालजयी व्यक्तित्व
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