SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "गुरुदेव ! इतनी विघ्न-बाधाओं को कैसे पार करें ? ताऊ जी यह कहते हैं, चाचा यह कहते हैं, अमुक ने यह कहा है, अमुक ऐसा कह रहा है 1" आचार्य श्री बीच में ही बोल पड़े "जिसे मोक्ष-पथ में चलना ही है, उसे विघ्नबाधाएं क्या करेंगी ? कौन क्या कहता है ? मुमुक्षु की इस पर दृष्टि ही नहीं जानी चाहिये | अर्जुन ने जब बाणवेध किया था तब उसे वृक्ष के पत्ते व डालें, आकाश व चिड़िया कुछ नहीं दिख रहे थे — मात्र उसको अपना लक्ष्य, आंख की पुतली ही दिख रही थी तुम्हारा लक्ष्य एक तरफ ही होना चाहिये।" इतना उपदेश प्राप्त करके मैं तृप्त हो गई । यद्यपि उस समय मुझे आचार्यश्री के साथ नहीं जाने दिया गया, फिर भी मैं पुरुषार्थ से नहीं हटी, हिम्मत नहीं हारी। आखिर चातुर्मास में बाराबंकी आकर अपने लक्ष्य को कुछ अंश में पूरा कर ही लिया। गुरुदेव के ही करकमलों से मैंने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया, उन्हीं के करकमलों से क्षुल्लिका-दीक्षा प्राप्त की। आज भी हर क्षेत्र में, हर कार्य में गुरुदेव के वे शब्द मेरे कर्णपथ में घूमते ही रहते हैं । वे शब्द आज तक भी मेरे मानसपटल पर अंकित हैं । मेरे जीवन में ज्ञान और चरित्र का दिनोंदिन विकास, मेरे द्वारा होने वाले और भी अनेकों कार्यों में गुरुदेव का वह आशीर्वाद और प्रेरणास्पद वाक्य ही मेरा संबल रहा है । यही कारण है कि मैं आज तक किसी कार्य में असफल नहीं हुई हूं। जो भी कार्य हाथ में लिया है, उसे पूरा करके ही छोड़ा है। यह सब गुरुदेव का ही शुभाशीर्वाद है । 4 मेरी व्याकरण पढ़ने की तीव्र इच्छा को देखकर आचार्यश्री ने जयपुर चातुर्मास में कई विद्वान् पंडित बुलाये। वे दो-चार सूत्र पढ़ा देते, पुनः कह देते - यह हलुआ नहीं है, लोहे के चने हैं। इसका संस्कृत कालेज में दो वर्ष का कोर्स है। मैं कहती - मुझे चार-पांच पृष्ठों तक सूत्रों का अर्थ समझा दो । उन विद्वानों ने आकर आचार्यश्री से निवेदन किया- "महाराज जी ! मैं इन्हें व्याकरण नहीं पढ़ा सकता ।" किसी ने कहा- "पूज्य गुरुदेव! यहां संस्कृत कालेज में एक दामोदर शास्त्री है जिन्होंने कि कातंत्र व्याकरण कंठस्थ किया हुआ है । आप उन्हें इनके पढ़ाने का कार्य सौंपें ।" वे विद्वान् पं० दामोदर जी आये । महाराज ने मुझसे कहा - "देख वीरमती ! यह कातंत्र व्याकरण दो वर्ष का कोर्स है । तुझे दो मास में पूर्ण करना है ।" इतना कहकर महाराज जी मुस्करा दिये। मैंने हाथ जोड़कर कहा - "जो आज्ञा आपकी ।" मेरे साथ क्षुल्लिका विशालमती जी बैठती थीं। मैंने एक दिन कम दो महीने में वह व्याकरण पूर्ण कर लिया । पुनः जाकर गुरुदेव को नमस्कार किया। गुरुदेव प्रसन्न हुए और बोले "बस ! तुझे अब सभी ग्रन्थों का अर्थ लगाना आ जायेगा ।" गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर मुझे ऐसा लगा कि मैंने विद्यानिधि प्राप्त कर ली है। वही व्याकरण मैंने अपने सर्वशिष्यों को पढ़ाया है । पुनः उसका हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है। उसी एक व्याकरण के बल पर मैंने जैनेन्द्रप्रक्रिया, शब्दार्णवचन्द्रिका आदि कई व्याकरण अपनी शिष्याओं को पढ़ाये हैं तथा अष्टसहसी जैसे क्लिष्टतम ग्रन्थ का भाषानुवाद भी किया है। महाराजश्री जब अपने आसन पर विराजते हैं तब उनकी स्थिर व गंभीर मुद्रा भक्तों के हृदय में अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहती है। वे अपने निदकों के साथ हँस-हँस कर वाढलाय करते रहते हैं। उनके हृदय की क्षमा और उदारता देखकर विद्वान् लोग यही कहा करते हैं कि आचार्यश्री का पेट बहुत बड़ा है। इतनी वृद्धावस्था में भी आप भगवान् बाहुबली का सहस्राब्दी महोत्सव, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि धर्मभावना के कार्यों में आवकों के उत्साहवर्धन हेतु विहार करने पहुंच जाते हैं। यह आपकी शरीर- निःस्पृहता और गाढ़ धर्मानुराग का ही द्योतक है । आचार्यश्री मेरे द्वारा अनुवादित अष्टसहस्री ग्रन्थ को प्रकाशित हुआ देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए और बोले – “मेरे लगाये हुए बीज का वृक्ष तो हो ही गया है, उसमें फल भी लग गये हैं। " उनके इन शब्दों में कितना वात्सल्य भरा हुआ था, अपने गुरु का असीम वात्सल्य प्राप्त होने पर एक शिष्य को ही उसका अनुभव हो सकता है। जब पुत्रों की कल्पना से भी अधिक उन्नति उनके माता-पिता देखते हैं तब उन्हें जितना हर्ष होता है और वे पुत्रों को कितना आशीषते हैं, यह वह माता-पिता व उनकी सन्तान ही अनुभव कर सकते हैं। कालजयी व्यक्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only ७३ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy