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________________ हुए विशाल सर्पो और लताओं ने उन्हें वेष्टित कर लिया और अन्तत: इसी दशा में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। महाकवि स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' (संधि ४/१२) में बाहुबली स्वेच्छा से तपोवन में जाते हैं कि आएं साहमि परम-मोक्खु । हि लब्भइ अचलु अणन्तु सोक्खु ।। सुणिसल्लु करेंवि जिणु गुरु भणेवि । थिउ पञ्च मुट्ठिसिरें लोउ देवि ।। ओलम्बिय-करयलु एक्कु बरिसु । अविओलु अचलु गिरि-मेरु सरिसु॥ अर्थात् इस पृथ्वी से क्या? मैं मोक्ष की समाराधना करूंगा, जिससे अचल, अनन्त और शाश्वत सुख मिलता है । बाहुबली ने नि:शल्य होकर जिनगुरु का ध्यान किया और पंचमुष्टियों से केशलोचन किया। बाहुबली दोनों हाथ लम्बे कर एक वर्ष तक मेरुपर्वत की तरह अचल और शान्त चित्त होकर खड़े रहे । महाकवि स्वयंभू ने सन्धि ४/१३ में तपोरत बाहुबली में थोड़ी-सी कषाय अर्थात् भरतभूमि पर खड़े रहने का परिज्ञान, का उल्लेख किया है, शल्य का नहीं। आचार्य जिनसेन कृत 'हरिवंशपुराण' (सर्ग ११/१८) में बाहुबली के एक वर्ष के प्रतिमायोग का उल्लेख मिलता है। इसी पद्य में बाहुबली के कैलाश पर्वत पर तपस्या करने का उल्लेख भी आया है। जैन पुराणों में हरिवंश पुराण ही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमें भरत एवं बाहुबली के युद्ध की निश्चित संग्राम भूमि अर्थात् वितता नदी के पश्चिम भाग का उल्लेख मिलता है। सम्भवतया हरिवंशपुराणकार ने ऐसा लिखते समय किसी प्राचीन कृति का आधार लिया होगा। बाहुबली के कैलाश पर्वत पर तपस्या करने के उल्लेख से यह सिद्ध हो जाता है कि तपोरत बाहुबली में शल्य-भाव की विद्यमानता परवर्ती लेखकों की कल्पना मात्र है। महाकवि पुष्पदन्त ने 'महापुराण' (१८/५/८) में बाहुबली के कैलाश पर्वत पर तपस्या करने का उल्लेख इस प्रकार किया है--'गए केलासु परायर भयुबलि ।' उन्होंने बाहुबली के चरित्र की विशेषता में 'खाविउं खम भूसणु गुणावंतहं' 'और 'पई जित्ति खमा वि खम भावें' जैसी काव्यात्मक सूक्तियां लिखकर उन्हें गुणवानों में सर्वश्रेष्ठ एवं क्षमाभूषण के रूप में समादत किया है । आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण (पर्व (३६/१३७) में सत्य ही कहा है कि तपोरत बाहुबली स्वामी रसगौरव, शब्दगौरव और ऋद्धिगौरव से युक्त थे, अत्यन्त निःशल्य थे और दश धर्मों के द्वारा उन्हें मोक्षमार्ग में दृढ़ता प्राप्त हो गई थी। इस प्रकार उपरोक्त पांचों जैन पुराणों के तुलनात्मक विवेचन से यह सिद्ध होता है कि तपोरत बाहुबली में शल्य भाव नहीं था। भगवान् बाहुबली का कथानक जैन समाज में अत्यधिक लोकप्रिय रहा है । जैन धर्म की पौराणिक रचनाओं में बाहुबली स्वामी का प्रकरण बहुलता से मिलता है। प्रारम्भिक रचनाओं में यह कथानक संक्षेप में दिया गया है और परवर्ती रचनाओं में इसका क्रमश: विस्तार होता गया। भगवान् बाहुबली को धीर-वीर उदात्त नायक मानकर अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना हुई है। आधुनिक कन्नड भाषा के अग्रणी साहित्यकार श्री जी० पी० राजरत्नम् ने गोम्मट-साहित्य की विशेष रूप से ग्रन्थ-सूची तैयार की है, जिसमें कतिपय ऐसे ग्रन्थों का उल्लेख है, जिनकी जानकारी अभी भी अपेक्षित है । संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में निबद्ध 'अनन्त वे मधुर' और 'चारुचन्द्रमा' से प्राय: अधिकांश विद्वान् अपरिचित हैं । पौराणिक मान्यताओं में भगवान् बाहुबली के स्वरूप के विशद विवेचन के लिए बाहुबली साहित्य का मन्थन अत्यावश्यक है। उदाहरण के लिए आचार्य रविषेण (ई० ६४३-६८०) ने 'पद्मपुराण' (पर्व ४/७७) में भगवान् बाहुबली को इस अवसर्पिणी काल का सर्वप्रथम मोक्षगामी बतलाया है ततः शिवपदं प्रापदायुषः कर्मणः क्षये। प्रथमं सोऽवसपिण्यां मुक्तिमार्ग व्यशोधयत् ।। इसके विपरीत भगवान् बाहुबलो के कथानक को जनमानस में प्रतिष्ठित कराने में अग्रणी आचार्य जिनसेन ने भगवान ऋषभदेव के पुत्र सर्वज्ञ अनन्तवीर्य को इस अवसपिणी युग में मोक्ष प्राप्त करने के लिए सब में अग्रगामी (सर्वप्रथम मोक्षगामी) बतलाया है -सबुद्धोऽनन्तवीर्यश्च सर्वेऽपि तापसास्तपसि स्थिताः । भट्टारकान्ते संबुद्धय महा प्राव्राज्यमास्थिताः।" (आदिपुराण, पर्व २४/१८१) जैन पुराण शास्त्र में इस प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए गम्भीर अध्ययन अपेक्षित है। भगवान् बाहुबली को इस अवसर्पिणो युग का सर्वप्रथम मोक्षगामी स्वीकार करने के कुछ कारण यह हो सकते हैं कि बाहुबली का कथानक आदि युग से जन-जन की जिज्ञासा एवं मनन का विषय रहा है । जैन पुराणों में प्रायः परम्परा रूप में भगवान् ऋषभदेव की वन्दना की परिपाटी चली आ रही है । इस पद्धति का अनुकरण करते हुए प्रायः सभी पुराणकारों एवं कवियों ने तीर्थकर ऋषभदेव की वन्दना के साथ भरत एवं बाहुबली प्रकरण का उल्लेख किया है। भगवान् बाहुबली की तपश्चर्या, केवलज्ञान लब्धि और मोक्ष का प्रायः सभी पुराणों में बहु लता से उल्लेख मिलता है । बाहुबली प्रथम कामदेव थे और उन्होंने चक्रवर्ती भरत से पहले मोक्ष प्राप्त किया था। इसी कारण उन्हें सर्वप्रथम मोक्षगामी भी कहा जाता है। आचार्यरत्न श्री देश भूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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