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________________ धणवाल कृत बाहुबलिदेवचरिउ' का अपरनाम कामचरित भी है । इसकी १८ सन्धियों में महाकाव्यात्मक शैली में बाहुबली के चरित का सुन्दर अंकन किया गया है । कवि ने सज्जन- दुर्जन का स्मरण करते हुए कहा है कि "यदि नीम को दूध से सींचा जाय, ईख को यदि शस्त्र से काटा जाय, तो भी जिस प्रकार वे अपनी मधुरता नहीं छोड़ते, उसी प्रकार सज्जन- दुर्जन भी अपने स्वभाव को नहीं बदल सकते ! तत्पश्चात् कवि ने इन्द्रियजयी ऋषभ का वर्णन कर बाहुबली के जीवन का सुन्दर चित्रांकन किया है। इसका कथानक वही है, जो आदिपुराण का, किन्तु तुलना की दृष्टि से उक्त बाहुबली चरित अपूर्व है । इस ग्रन्थ की प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी आद्य-प्रशस्ति में ऐसे अनेक पूर्ववर्ती साहित्यकारों एवं उनकी रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं, जो साहित्य जगत के लिए सर्वथा अज्ञात एवं अपरचित थे । उनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं :- - कवि चक्रवर्ती धीरसेन, वज्रसूरि एवं उनका षद्दर्शनप्रमाण ग्रन्थ, महासेन एवं उनका सुलोचना चरित; दिनकरसेन एवं उनका कन्दर्पचरित ( अर्थात् बाहुबली चरित); पद्मसेन और उनका पार्श्वनाथचरित, अमृताराधना ( कर्त्ता के नाम का उल्लेख नहीं), गणि अम्बसेन और उनका चन्द्रप्रभचरित तथा धनदत्तचरित कवि विष्णुसेन ( इनकी रचनाओं का उल्लेख नहीं ) ; मुनि सिहनन्दि और उनका अनुप्रेक्षाशास्त्र एवं णवकारमन्त्र; कवि नरदेव ( रचना का उल्लेख नहीं); कवि गोविन्द और उनका जयधवल आर शालिभद्र चतुर्मुख, द्रोण, एवं सेट' (इनकी रचनाओं के उल्लेख नहीं जैन साहित्य के इतिहासकारों के लिए ये सूचनाएं अत्यन्त महत्वपूर्ण है। ; इस रचना के रचियता महाकवि धनपाल हैं, जो गुजरात के पल्हणपुर या पालनपुर के निवासी थे। उस समय वहां बीसलदेव राजा का राज्य था । उन्होंने चन्द्रवाड नगर के राज्य-श्रेष्ठी और राज्यमन्त्री, जैसवाल कुलोत्पन्न साहू वासाघर की प्रेरणा से उक्त बाहुबली देवचरिउ की रचना की थी । वासाधर के पिता - सोमदेव सम्भरी ( शाकम्भरी ? ) के राजा कर्णदेव के मन्त्री थे । अपने व्यक्तिगत परिचय में कवि ने बताया है कि पालनपुर के पुरवावंशीय नोवह नामके नगर सेठ ही उसके ( कवि के ) पितामह थे । उनके पुत्र सुहडप्रभ तथा उसकी पत्नी सुहडादेवी से कवि धनपाल का जन्म हुआ था । कवि के अन्य दो भाई संतोष एवं हरिराज थे। कवि धनपाल के गुरु का नाम प्रभाचन्द्र था । उनके आशीर्वाद से कवि को कवित्वशक्ति प्राप्त हुई थी । ये प्रभाचन्द्र गणि ही आगे चलकर योगनीपुर (दिल्ली) के एक महोत्सव में भट्टारक रनकीर्ति के पट्ट पर प्रतिष्ठित किए गए थे। इन्होंने अनेक वादियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। दिल्ली के तत्कालीन सम्राट मुहम्मदशाह तुगलक इनकी प्रतिभा से अत्यन्त प्रसन्न रहते थे । बाहुबलिदेवचरिउ की अन्त्य - प्रशस्ति के अनुसार कवि का समय वि० सं० १४५४ को बैशाख शुक्ल त्रयोदशी सोमवार है । रत्नाकरवर्णी कृत भरतेशवैभव भारतीय वाङ्गमय की अपूर्व रचना है। इसकी २७ वीं सन्धि में प्रसंग प्राप्त कामदेव आस्थान सन्धि में बाहुबली के बल वीर्य पुरुषार्थ एवं पराक्रम के साथ-साथ उनकी स्वाभिमानी एवं दर्पीली वृत्ति एवं विचार दृढ़ता का हृदयग्राह्य चित्रण किया गया है। वैसे तो यह समस्त ग्रन्थ गन्ने की पोरों के समान सर्व प्रसंगों में मधुर है किन्तु भरत एवं बाहुबली का संघर्ष इस ग्रन्थ की अन्तरात्मा है। भाई-भाई में अहंकारवश भावों में विषमता आ सकती है । किन्तु तद्भव मोक्षगामी चरमशरीरी तीर्थंकर पुत्रों में प्राणान्तक वैषम्य हो, यह कवि की दृष्टि से युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । अतः कवि ने दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध, मल्लयुद्ध के माध्यम से भरतेश्वर को पराजित कराकर भी भरतेश्वर के गौरव की सुरक्षा की है। भरतेश-वैभव के अनुसार भुजबली (बाहुबली) पर चक्ररत्न का प्रयोग उसके वध के लिए नहीं अपितु उनकी सेवा के लिए प्रेषित किया गया है। इस रूप में कवि ने कथानक के हार्द को निश्चय ही एक नया मोड प्रदान किया है। इस प्रसंग में कवि की सूझ-बूझ अत्यन्त सराहनीय एवं तर्कसंगत है । अन्य कवियों के कथन की प्रामाणिकता की रक्षा करते हुए भी कवि ने निजी भावना को अभिव्यक्त कर अपने कवि चातुर्य का सुन्दर परिचय दिया है । भरतेश-वैभव ग्रन्थ पांच कल्याणों में (सर्पों में) विभक्त है भोगविजय कल्याण, दिग्विजय कल्याण योगविजय कल्याण, मोक्षविजय कल्याण एवं अर्ककीति विजय कल्याण । इनमें ८० सन्धियाँ एवं ६६६० श्लोक संख्या है । देवचन्द्रकृत राजवलिकथा के अनुसार इस ग्रन्थ में ८४ सन्धियाँ होनी चाहिए। इससे प्रतीत होता है कि प्रस्तुत उपलब्ध कृति में ४ सन्धियाँ अनुपलब्ध हैं ।" १. ग्रामर शास्त्र भण्डार जयपुर में सुरक्षित एवं प्रधावधि अप्रकाशित प्रति के प्राधार पर प्रस्तुत विवरण २. दे० वही प्राद्य प्रशस्ति. ३. धर्मवीर जैन ग्रन्थमाला कल्याण भवन (शोलापुर १६७२६०) से दो जिल्दों में प्रकाशित. ४. दे० भरतेश वैभव- प्रस्तावना पृ० १ गोम्मटेश दिग्दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only ३३ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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