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अर्धमागधी आगम साहित्य एवं उनकी टीकाओं के अनुसार बाहुबली ऋषभदेव की द्वितीय पत्नी सुनन्दा के पुत्र थे, वे एवं सुन्दरी (पुत्री) युगल के रूप में जन्मे थे । उन्हें बहली का राज्य प्रदान किया गया था उनकी राजधानी तक्षशिला थी । जब उन्होंने अपने भाई भरत का प्रभुत्व स्वीकार नहीं किया तब भरत ने उन पर आक्रमण कर दिया था। बाहुबली ने व्यर्थ के नरसंहार से बचने हेतु व्यक्तिगत युद्ध करने के लिए भरत को तैयार कर लिया। उन दोनों में नेत्रयुद्ध, वाग्युद्ध एवं मल्लयुद्ध हुए। उनमें पराजित होकर भरत ने बाहुबली पर चक्ररत्न से आक्रमण कर दिया। बाहुबली यद्यपि वीर पराक्रमी थे, फिर भी भाई के इस कार्य से उन्हें संसार के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई और उन्होंने दीक्षा लेकर कायोत्सर्ग मुद्रा में कठोर तपस्या की । उसमें वे इतने ध्यानमग्न थे कि पहाड़ी चीटियों ने बांबी बनाकर उनके पैरों को उसमें इक लिया। इतना होने पर भी उन्हें जब फैवल्य की प्राप्ति नहीं हुई, तब उनकी बहिन ब्राह्मी और सुन्दरी ने उनका ध्यान उनके भीतर ही छिपे हुए अहंकार की ओर दिलाया। बाहुबली ने उसका अनुभव कर उसका सर्वथा परित्याग कर दिया और फलस्वरूप उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई । बाहुबली के संसार त्याग करते समय भरत ने उनके पुत्र को तक्षशिला का राज्य प्रदान कर दिया । बाहुबली के शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष थी । उनकी कुल आयु ८४ लाख पूर्व वर्ष थी । "
संघाणि ने अपनी वसुदेवहिण्डी' में "बाहुबलिस्स भरहेण सह जुज्या दिखाणामुपतीय" नामक प्रकरण में बावली के चरित का अंकन किया है। उसका सारांश इस प्रकार है
दिग्विजय से लौटकर भरत अपने दूत को बाहुबली के पास उनकी राजधानी तक्षशिला में भेजकर उन्हें अपनी सेवा में उपस्थित रहने का संदेश भेजते हैं। बाहुबली भरत के इस दुर्व्यवहार पूर्ण सन्देश को सुनकर आगबबूला हो उठते हैं। उनके अहंकार पूर्ण इस व्यवहार से क्रुद्ध होकर भरत ससैन्य तक्षशिला पर चढ़ाई कर देते हैं। बाहुबली और भरत वहां यह निर्णय करते हैं कि उनमें दृष्टियुद्ध एवं मुष्टियुद्ध हो। उन दोनों युद्धों में हारकर भरत बाहुबली पर चक्र से आक्रमण करते हैं । उसे देखकर बाहुबली कहते हैं कि मुझसे पराजित होकर मुझ पर चक्र से आक्रमण करते हो ? यह सुनकर भरत कहते हैं कि मैंने चक्र नहीं मारा है । देव ने उस शस्त्र को मेरे हाथ से फिकवाया है। इसके उत्तर में बाहुबली कहते हैं कि तुम लोकोत्तम पुत्र होकर भी यदि मर्यादा का अतिक्रमण करोगे तो फिर सामान्य व्यक्ति कहाँ जायेंगे ? अथवा इसमें तुम्हारा क्या दोष, क्योंकि विषय लोलुपी होने पर ही तुम ऐसा अनर्थ कर रहे हो। ऐसा विषय लोलुपी होकर मैं इस राज्य को लेकर क्या करूंगा ? यह कहकर वे समस्त आरम्भों को त्यागकर योगमुद्रा धारण कर लेते हैं और तपस्या कर कैवल्य प्राप्ति करते हैं ।
वसुदेवहिण्डी का अद्यावधि प्रथम खण्ड ही दो जिल्दों में प्रकाशित हैं। इनमें में प्रथम जिल्द से ७ लम्भक (अध्याय) हैं । द्वितीय जिल्द में ८ से २८ वें लम्भक हैं किन्तु उनमें से १६ - २० वें लम्भक अनुपलब्ध थे । किन्तु अभी हाल में डा० जगदीश चन्द्र जैन (बम्बई) के प्रयत्नों से वे भी मिल चुके हैं।" उसके रचयिता श्री संघदासगणि हैं। इनका समय विवादास्पद है किन्तु कुछ विद्वानों का अनुमान है कि उनका समय ६ वीं सदी के पूर्व का रहा होगा । "
धर्मदासगण ने अपनी उपदेशमाला' में 'बाहुबली दृष्टान्त' प्रकरण में बाहुबली एवं भरत की वही कथा निबद्ध की है, जो संघदासगण ने वसुदेवहिण्डी में' । यद्यपि वसुदेवहिण्डी की अपेक्षा उपदेशमाला के कथानक में अपेक्षाकृत कुछ विस्तार अधिक है, फिर भी कथानक में कोई अन्तर नहीं । यदि कुछ अन्तर है भी तो वह यही कि उपदेशमाला का कथानक अलंकृत शैली में है जब कि वसुदेवहिण्डी
१. दे० Agmic Index Vol. I [ Prakrit proper Names] Part II Ahmedabad 1970-72 p. 507-8 २. जैनम्रात्मानन्दसभा भावनगर (१६३०-३१ ई०) से प्रकाशित ).
३. दे० वसुदेवहिण्डि पंचमलम्भक पृ० १८७.
४.
दे० वसुदेवहिण्डि पृ० ३०८.
५. दे० Proceedings of the A.I.O.C. 28th session Karnataka University Nov. 1976 Page 104
६.
दे० भारतीय संस्कृति में जनधनं का योगदान पृ० १४३
७. निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन संघ दिल्ली (१९७१ ई०) से प्रकासित
८. दे० उपदेशमाला पृ० ८०-१५
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आचार्यरल भी देशभूषण जी महाराज अभिमन्
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