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श्री चन्दा ने जिस सील का विस्तृत विवरण दिया है, वह परम्परा जैन साहित्य में आश्चर्यजनक रूप से सुरक्षित है । आचार्य वीरसेन (धवना के रचनाकार) विमलसूरि-रचित प्राकृत ग्रन्थ 'पठनवरियं" एवं जिनसेनकृत आदिपुराण" में जो वर्णन मिलने हैं उनमें तथा उक्त सील में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव देखा जा सकता है। इन वर्णनों के सूक्ष्मतर अध्ययन से पता चलता है कि इस तरह की कोई मुद्रा अवश्य ही व्यापक प्रचलन में रही होगी क्योंकि मोहन-जो-दड़ो की सील में अंकित आकृतियों तथा जैन साहित्य में उपलब्ध वर्णनों का यह साम्य आकस्मिक नहीं हो सकता। निश्चय ही यह एक अविच्छिन्न परम्परा की ठोस परिणति है । यदि हम पूर्वोक्त ग्रन्थों के विवरणों को सील के विवरणों से समन्वित करें तो सम्पूर्ण स्थिति की स्पष्ट व्याख्या इस प्रकार सम्भव है :
पुरुदेव ( ऋषभदेव) नमत बड़गासन कायोत्सर्ग मुद्रा में अवस्थित हैं उनके शीयपरि भाग पर त्रिशुल अभिमण्डित है.. यह रत्नत्रय की शिल्पाकृति है। कोमलविव्यध्वनि के प्रतीक रूप एक लतान्यर्ण मुखमण्डल के पास सुशोभित है। दो कल्पवृक्ष-शाखाएँ] पुण्य-फलयुक्त महायोगी उससे परिवेष्टित है। यह प्राप्य फल की द्योतक है। चक्रवर्ती भरत भगवान के चरणों
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में अंजलिबद्ध प्रणाम - मुद्रा में नतशीश हैं। भरत के पीछे वृषभ हैं, जो भगवान् ऋषभनाथ का चिह्न ( लांछन ) हैं । अधोभाग में अपने राजकीय गणवेश में सात मन्त्री हैं, जिनके पदनाम हैं- माण्डलिक राजा, ग्रामाधिपति, जनपद-अधिकारी, दुर्गाधिकारी (गृहमंत्री), भण्डारी (कृषिवित्त मन्त्री) पडंग बलाधिकारी ( रक्षा मन्त्री) मित्र (परराष्ट्र मन्त्री) ।
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मोहनजोदड़ो की मुद्राओं में उत्कीर्णित इन तथ्यों का स्थूल भाष्य सम्भव नहीं है; क्योंकि परम्पराओं और लोकानुभव को छोड़ कर यदि हम इन सीलों की व्याख्या करते हैं तो यह व्याख्या न तो यथार्थपरक होगी और न ही वैज्ञानिक । जब तक हम इस तथ्य को ठीक से आत्मसात नहीं करेंगे कि मोहन जोदड़ो की सभ्यता पर योगियों की आत्मविद्या की स्पष्ट प्रतिच्छाया है, तब तक इन तथ्यों के साथ न्याय कर पाना सम्भव नहीं होगा अतः इतिहासविदों और पुरातत्त्ववेत्ताओं को चाहिये कि वे प्राप्त तथ्यों को परवर्ती साहित्य की छाया में देखें और तब कोई निष्कर्ष लें । वास्तव में इसी तरह के तुलनात्मक और व्यापक, वस्तुनिष्ठ और गहन विश्लेषण से ही यह सम्भव हो पायेगा कि हमारे सामने कोई वस्तुस्थिति आये ।
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अब हम उन प्रतीकों की वर्चा करेंगे, जो मोहनजोदड़ो के अवशेषों से मिले हैं और जैन साहित्य में भी जिनका उपयोग हुआ है। यहाँ तक कि इनमें से कुछ प्रतीक तो आज तक जैन जीवन में प्रतिष्ठित हैं ।
सब से पहले हम 'स्वस्तिक' को लेते हैं। सिन्धुघाटी से प्राप्त कुछ सीलों में स्वस्तिक ( साथिया ) भी उपलब्ध है। इससे यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि सिन्धुघाटी के लोकजीवन में स्वस्तिक एक मांगलिक प्रतीक था साथिया जैनों में व्यापक रूप में पूज्य और प्रचलित है । इसे जैन ग्रन्थों, जैन मन्दिरों और जैन ध्वजाओं पर अंकित देखा जा सकता है । व्यापारियों में इसका व्यापक प्रचलन है। दीपावली पर जब नये खाते - बहियों का आरम्भ किया जाता है, तब साँथिया माँड़ा जाता है।
स्वस्तिक जैन जीव - सिद्धान्त का भी प्रतीक है। इसे चतुर्गति का सूचक माना गया है। जीव की चार गतियां वर्णित हैं। नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव । स्वस्तिक के शिरोभाग पर तीन बिन्दु रखे जाते हैं, जो रत्नत्रय के प्रतीक हैं । इन तीन बिन्दुओं के ऊपर एक चन्द्रबिन्दु होता है जो क्रमशः लोकाग्र और निर्वाण का परिचायक है । 'स्वस्ति' का एक अर्थ कल्याण भी है ।
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२. पउमचरियं विमलसूरि ४/६८-६९
३. आदिपुराण; आचार्य जिनसेन २४ /७३-७४
४. पुरुदेव चम्पूप्रबन्ध १/१ श्रीमद् अर्हदास (दिव्यध्वनि मृदुलतालंकृतमुखः) ।
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मंगलावरण १/१/२५ आचार्य वीरसेन (तिरपण तिल धारिय) |
५. पउमचरियं विमलसूरि ४ / ६८-६६
६. भारत में संस्कृति एवं धर्म डॉ० एम० एन० शर्मा ०१६
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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