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________________ बतलाये हैं । यह जिनालय, एक सुन्दर वाटिका में है जो आम, केला, अशोक, झाऊ आदि के वृक्षों तथा श्वेत लाल रंग के पुष्पों-पौधों से सुशोभित है। मंदिर जी का मुख्यद्वार बड़ा विशाल व प्रतोलीद्वार दुमंजिला है, जिसकी इमारत में गवाक्षों के रंगे हुए कट कड़े, जाली तथा अविशिष्ट भाग श्वेत भूमिका पर सुनहरे काम के सुन्दर चित्र बने हुए हैं। प्रतोली का द्वार खुला हुआ और दूसरा द्वारा बन्द किया हुआ है। द्वार के आगे दाहिनी ओर चार व बायें तरफ आठ, कुल मिलाकर बारह संतरी पहरा दे रहे हैं । ये लोग नीले रंग की वर्दी पहिने व हाथ में संगीन लिये तैनात हैं, इसके बाद पाँच हाथियों के चित्र हैं जिनका सौन्दर्य व वस्त्राभरण दर्शनीय है, तीन हाथियों पर अम्बाडी व एक पर खुला हौदा प्रक्षरित है, जिस पर पताकाएं हैं। दूसरे पर बन्द पड़दे वाली जनानी-अम्बाडी है। तीसरे पर त्याघ मुखदण्ड माहे-मुरातब है, जो जयपुर का शाही सम्मान सूचक चिह्न है। सभी हाथियों पर महावत हैं पर एक पर दो व्यक्ति दूसरे भी बैठे हुए हैं। इस पर पंचवर्णी ध्वजा-पताका लहरा रही है। इस चित्र में दो व्यक्ति भूमि पर खड़े हुए हैं, जो प्रहरी मालूम देते हैं । इसके बाद अश्वमडली का चित्र है, इनमें दो श्वेत और दो नीले रंग के घोड़े हैं, एक सबार बैठे हुए हैं और तीन घोड़ों की लगाम थामे खड़े हैं । एक सवार अपने आगे धारण किए हुए डंके पर चोट दे रहा है। दूसरे दोनों सवार छड़ीदार और पताका धारी मालूम होते हैं, चार ऊंटों की ओठी (सवार) बन्दुक धारण किये हुए हैं। कुल ६ ऊंट है। इसके बाद बड़े चित्र में सेना दिखाई है, इसमें अग्रगामी ६ व्यक्ति फौजी बैण्ड (वाजिब) के १५ सैनिक हैं, जिनके ब्लू रंग की पोशाक पहनी हुई है। तदुपरान्त पालकी, रथ, ऊंट व घुड़सवार भी हैं। दो व्यक्ति पालकी के आगे व चार व्यक्ति रथ के आगे-आगे चल रहे हैं । एक रथ का केवल जोत दीखता है, उसके बैल आराम से बैठे हुए दृष्टिगोचर होते हैं । इसके बाद वाले चित्र में चार बाह्य-यंत्र-धारी खड़े हैं और दो नर्तकियाँ नृत्य कर रही हैं। इसकी पृष्ठ भूमि में वाटिका और एक कोठी है। आगे के चित्र में मुनिराज के स्वागतार्थ श्राविका संघ गज-गामिनी चाल से जाता हुआ बताया है, जिसकी अग्रेश्वरी श्राविका के मस्तक पर मंगल के लिए पूर्ण-कलश धारण किया हुआ है। अब शहर की प्राचीर देखिये- इसका रंग गुलाबी है तथा प्रतोली द्वार की शुभ्र धवल मिती पर स्वर्णमय काम बड़ा ही रमणीक है। प्रतोली द्वार के मध्य में राजसी-वस्त्रों के ठाठ में एक प्रभावशाली व्यक्ति हाथ जोड़े खड़ा है। सामने मुनिराज अपनी शिष्य मंडली के साथ पधार रहे हैं। श्री रत्न-विजय जी महाराज के साथ ११ साधु हैं । ये सभी साधु पीतवस्त्रधारी हैं और रजोहरण और मुख-वस्त्रिका धारण किये हुए हैं । आश्चर्य यह है कि चित्रकार ने इनका चोलपटा भी श्वेत के स्थान में पीला बना दिया है । मुनि श्री के स्वागतार्थ श्रावक उपस्थित हैं। इसके बाद चित्र किसी कोढी का है, जो बगीचे के मध्य में है। मुनि श्री रत्न विजय जी यहां आकर तख्त पर विराजमान हुए हैं। उनके पीछे बड़ा-सा तकिया दिखाया है, जो चित्रकार की साध्वाचार अनभिज्ञता का द्योतक या यति-समाज में प्रचलित प्रथा के विपरीत है। मुनि श्री के समक्ष स्थापनाचार्य जी विराजमान हैं। श्रावक-श्राविकाओं ने स्वर्णमय बहुमूल्य मोती-माणक आदि जवाहरात के आभूषण तथा रेशमी व जरी के वस्त्र पहने हुए हैं। कोठी की छत पर चार कन्याओं के झांकते हुए मुख दिखाई देते हैं । इसके बाद मुनिश्री के पृष्ठ भाग में एक लघु शिष्य खड़ा है। चौक में १५ श्रावक व १४ श्राविकाएं दाहिने व बायें तरफ बैठे हुए व्याख्यान श्रवण कर रहे हैं। इसके बाद के चित्र में वाटिका के मध्यस्थ फर्श का एक भाग बताया है, जिस पर आठ व्यक्ति गाते-बजाते हुए बैठे हैं, जो गंधर्व लोग मालूम देते हैं, दो व्यक्ति खड़े हैं । अब अन्तिम चित्र १५॥ इच लम्बा व १० इंच चौड़ा जयपुर नगर का है जिसका संक्षिप्त परिचय कराया जाता है। इस चित्र में जयपुर नगर की प्राचीर (परकोटा शहरपनाह) का भाग सामने दो तरफ का दिखलाया है। नगर के चार दरवाजे चांदपोल, सांगानेर दरवाजा, घाट दरवाजा आदि दिखाये हैं। चौरास्ते की तीन चौपड़ होने के कारण मकानों की श्रेणियां आठ भागों में विभक्त हो गई हैं। मकानों की इन श्रेणियों में गुलाबी, हरे, नीले व पीले रंग दो-दो दिखाये हैं। इस चित्र की सूक्ष्मता में चित्रकार ने कमाल कर दिखाया है। इतने छोटे चित्र में वृक्ष, नर-नारी, हाथी घोड़े, इक्के आदि से जयपुर का राजमार्ग बड़ी कुशलता से चित्रित किया है। इसमें तीन चौपड़, सरगासूली (इसरलाट), जलमहल, सिरेड्योढी, त्रिपोल्या, जौहरी बाजार, हवामहल आदि इमारतें देखते ही खूब आसानी से पहिचानी जाती हैं । नगर का बाह्य भाग भी घनघोर जंगल के हरिताभ वातावरण से परिपूर्ण है। सांगानेरी दरवाजे के सामने वाले भाग में मंदिर, तम्बू, डेरा आदि भी दृष्टिगोचर होते हैं। सामने मोती डूंगरी रानी जी का महल आदि तथा नगर के पृष्ठ भाग में नाहरगढ़, जयगढ़ और आमेर महल आदि के पहाड़ी दृश्य बड़े ही मनोरम हैं। सबसे उच्चे भाग में दुर्ग के प्रोलिप्राकार व परकोटा तथा दुर्ग के वापिशीर्षक दिखाई दे रहे हैं । गढ़ का गणेश, सूर्य मंदिर, गलता, मोहनवाड़ी आदि दर्शनीय स्थान, वाटिका व तालाब आदि का चित्रण करके चित्रकार ने जयपुरी चित्रकला का अच्छा परिचय दिया है। चित्रों की समाप्ति के बाद विज्ञप्ति-लेख की बारी आती है, जिसकी प्रारभिक पंक्तियां इस प्रकार है : श्रीमत्पावें जिनेन्द्र-पाद-कमल-ध्यानकतानाः सदा श्रेष्ठ-ध्यान-युगेऽतिरक हृदयाः षट्-कायिका नेदया जैन इतिहास, कला और संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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