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दोष स्त्रियों में दिखाये गये हैं वे पुरुष में भी मौजूद हैं । अन्तर इतना है कि स्त्रियाँ उनको दूर करने का प्रयत्न करती हैं जबकि पुरुष उनसे बिलकुल उदासीन रहते हैं। पुरुष समाज उसे दोष ही नहीं मानते । उदाहरण देते हुए वराह मिहिर ने कहा है कि विवाह की प्रतिज्ञाएँ वर-वधू दोनों ही ग्रहण करते हैं किन्तु पुरुष उनको साधारण मानकर चलते हैं जबकि स्त्रियाँ उन पर आचरण करती हैं। उन्होंने प्रश्न उठाया है कि कामवासना से कौन अधिक पीड़ित होता है ? पुरुष जो कामवासना की तृप्ति हेतु वृद्धावस्था में भी विवाह करता है या वह स्त्री जो बाल्यावस्था में विधवा हो जाने पर भी सदाचरण का जीवन व्यतीत करती है ? पुरुष जब तक उसकी पत्नी जीवित रहती है, तब तक उससे प्रेम-वार्तालाप करते हैं परन्तु उसके मरते ही दूसरी शादी रचाने में नहीं सकुचाते । उसके विपरीत स्त्रियां अपने पति के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करती हैं। पति की मृत्योपरान्त पति के साथ चिता में भस्म हो जाती हैं। अब सुधीजन यह निर्णय कर सकते हैं कि प्रेम में कौन अधिक निष्कपट है-पुरुष या महिला ?'
स्त्रियों के शुक्लपक्ष के वर्णन में भी आगम पीछे नहीं हैं। वहाँ अनेक ऐसी स्त्रियों का वर्णन मिलता है जो पतिव्रता रही हैं। तीर्थंकर आदि महापुरुषों को जन्म देने वाली भी तो स्त्रियां ही थीं। अनेकानेक स्त्रियों का उल्लेख मिलता है जो गतपतिका, मतपतिका, बालविधवा, परित्यक्ता, मातृरक्षिता, पितृरक्षिता, भ्रातृरक्षिता, कुलगृहरक्षिता और स्वसुकुलरक्षिता कही गई हैं। स्त्रियों को चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में गिनाया गया है। संकट काल में स्त्रियों की रक्षा सर्वप्रथम करने को कहा गया है। मल्लिकुमारी को (श्वेता०) में तीर्थकर कह कर सम्बोधित किया गया है । भोजराज उग्रसेन की कन्या राजीमती का नाम जैन आगम में आदरपूर्वक उल्लिखित है।' विवाह के अवसर पर बाड़ों में बंधे हुए पशुओं का चीत्कार सुनकर अरिष्टनेमि को वैराग्य हो गया तो राजीमती ने भी उनके चरण-चिह्न का अनुगमन कर श्रमण दीक्षा ग्रहण की। एक बार अरिष्टनेमि, उनके भाई रथनेमि और राजीमती तीनों गिरनार पर्वत पर तपस्या कर रहे थे। वर्षा के कारण राजीमती के वस्त्र गीले हो गये । उसने अपने वस्त्रों को निचोड़कर सुखा दिया और पास की गुफा में खड़ी हो गई। संयोग से रथनेमि भी गुफा में ध्यानावस्थित थे। राजीमती को निर्वस्त्र अवस्था में देखकर उनका मन चलायमान हो गया। उसने राजीमती को भोग भोगने के लिए आमंत्रित किया। राजीमती ने इसका विरोध किया । उसने मधु और घृत युक्त पेय का पान कर ऊपर से मदन फल खा लिया, जिससे उसे वमन हो गया। रथनेमि को शिक्षा देने के लिये वमन को वह पेय रूप में प्रदान कर कुमार्ग से सन्मार्ग पर लाने में सहायक हुई।
आगम ग्रन्थों के स्त्री के सम्बन्थ में इन द्वन्द्वात्मक विचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जहां कहीं स्त्री चरित्र के कृष्णपक्ष का वर्णन है वह तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का उद्दीपन है, इसमें आगमकारों के किसी व्यक्तिगत मत का द्योतन नहीं । स्त्री योनि में उत्पन्न होने के कारण जीवन के चरमोद्देश्य की प्राप्ति में उनका स्त्रीत्व बाधक नहीं बताया गया है। आगम ग्रन्थों में अनेक ऐसे उदाहरण प्राप्त हैं जिनमें महिलाओं ने संसार त्यागकर परमपद की प्राप्ति की एवं जनता को सन्मार्ग पर लाने का हर संभव प्रयास किया । ऐसी महिलाओं में ब्राह्मी, सुन्दरी, चन्दना, मृगावती आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । जैन संघ में आचार्य चन्दना को बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त था। इनके नेतृत्व में अनेक साध्वियों ने सम्यक् चारित्र का पालन कर मोक्ष की प्राप्ति की। श्रमण महावीर के उपदेश से प्रभावित होकर अनेक राजघरानों की स्त्रियां सांसारिक ऐश्वर्य को छोड़कर साध्वी बनगई थीं। कोशाम्बी के राजा शतानीक की भगिनी का नाम इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। शारीरिक एवं मानसिक गुणों में कतिपय स्थानों पर स्त्रियों के सम्बन्ध में आगम साहित्य का अत्यन्त ही व्यावहारिक एवं जनग्राह्य मत का निदर्शन आचार्य सोमदेव का नीतिवाक्यामृतं का यह कथन करता है
सर्वाः स्त्रियः क्षीरोदवेला इव विषामृतस्थानम् । न स्त्रीणां सहजो गुणो दोषो वास्ति । किन्तु नद्यः समुद्रमिव यावृशं गतिम् आप्नुवन्ति तादृश्यो भवन्ति स्त्रियः ।।
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१. बृहत्संहिता ७६.६.१२, १४, १६ तथा ए० एस० अल्तेकर द पोजीसन ऑव वीमेन इन हिन्दू सिविलिजेशन, पृ०३८७ २. औपपातिक सूत्र-३८, पृ० १६७-८ ३. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ३.६७, उत्तराध्ययन टीका १८, पृ० २४७ अ
बृहत्कल्पभाष्य-४.४३३४-३६ दशवकालिक सूत्र २.७-११, इत्यादि-इत्यादि अन्तकृद्दशा-५, ७,८
व्याख्या प्रज्ञप्ति-१२.२, पृ० ५५६ ८. आचार्य बोमदेव, नीतिवाक्यामृतम्-२४, १० और २५
५.
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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