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________________ इन देवियों के अतिरिक्त ब्रह्माणी की मूर्ति बघेरा के जैन मन्दिर में मिलती है। इसी प्रकार जयपुर के लूणकरण जी पण्डया जैनमन्दिर में एक देवी की प्रतिमा है जिसमें देवी महिष पर बैठी हुई दिखलाई गई है। अष्टभुजा देवी की चार भुजाओं में तलवार, धनुष, बाण और परशु हैं तथा दूसरी ओर शंख, चक्र एवं दो और वस्तुएं हैं। इन प्रतिमाओं पर निश्चित रूप से तान्त्रिक प्रभाव देखा जा सकता है। हिन्दू देवी-देवता भी जैन मन्दिरों में स्थान पा जाते हैं । इस प्रकार जैन-धर्म ने हिन्दू धर्म के प्रति उदारता एवं सहिष्णुता का परिचय दिया है । सीता, लक्ष्मी, दुर्गा आदि देवियों की स्थापना एव पूजा गौण देवताओं के रूप में की गई है। देवियों की पूजा इतने अधिक परिमाण में जैनधर्म में प्रचलित थी और अभी भी चल रही है । यह इस बात का परिचायक है कि शक्तिपूजा या शाक्त मत का प्रभाव जैनधर्म पर यथेष्ट पड़ा है। भारत में शक्तिपूजा या देवीपूजा जनमानस में हर प्रदेश में व्याप्त हो गई है। जैनधर्म लोकधर्म होने के कारण इस धारा को रोक नहीं सका और उसने इसे आत्मसात् कर लिया। जैनधर्म की यही विशेषता उसको अभी तक प्रमुख धर्म के रूप में जीवित रख रही है। विद्यादेवी को विशेष पूजा व्यक्त करती है कि जैन आचार्यों ने भारतीय विद्यानिधि में भी अमूल्य योगदान दिया है। सन्दर्भ ग्रन्थ : १. भट्टाचार्य-जैन इकोनोग्राफी, लन्दन-१६३६ २. कैलाशचन्द्र जैन-जैनिज्म इन राजस्थान, शोलापुर-१९६३ ३. मोहनलाल भगवानदास झवेरी-श्रीभैरवपद्मावतीकल्प, अहमदाबाद-१६४४ ४. रघुनन्दनप्रसाद तिवारी-भारतीय चित्रकला और मूलतत्त्व, दिल्ली-१९७३ ५. आचारदिनकर (१४वीं शती)-पाण्डुलिपि ६. प्रोग्रेस रिपोर्ट आफ आर्कियोलोजिकल सर्वे-पश्चिम खंड-१९०५-६ ७. पी० बी० देसाई-जैनिज्म इन साउथ इन्डिया, शोलापुर-१६५७ ८. एपिग्राफिका कर्णाटिका-खण्ड (II) ९. गुप्ते-इकोनोग्राफी आफ अजन्ता एण्ड एलोरा १०. बेन्जमीन रोलेन्ड–आर्ट एन्ड आर्किटेक्चर आफ इन्डिया ११. रामप्रसाद चन्दा-मिडीवल इन्डियन स्कल्पचर, दिल्ली जैनधर्म में प्रत्येक तीर्थंकर के साथ शासनदेवता के रूप में एक यक्ष और एक यक्षिणी का शास्त्रीय विधान किया गया है। तिलोयपण्णत्तिकार ने चौबीस तीर्थंकरों की यक्षिणियों की सूची इस प्रकार से दी है चक्रेश्वरी, रोहिणी, प्रज्ञप्ति, ववशृखला, वज्रांकुशा, अप्रतिचक्रेश्वरी, पुरुषदत्ता, मनोवेगा, काली, ज्वालामालिनी, महाकाली, गौरी, गांधारी, बैराटी, सोलसा, अनन्तमति, मानसी, महामानसी, जया, विजया, अपराजिता, बहरूपिणी, कूष्माण्डी. पमा और सिद्धायिनी। तीर्थंकर की माता द्वारा देखे गए सोलह स्वप्नों में लक्ष्मी का उल्लेख आता है। प्रथमानुयोग के धर्म ग्रन्थों में सरस्वती को मेधा एवं बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी के रूप में समादृत किया गया है। हरिवंशपुराणकार ने बाईसवें अध्याय में विद्यादेवियों-प्रज्ञप्ति, रोहिणी इत्यादि का उल्लेख किया है। जिनागम में ब्राह्मी, सुन्दरी, सीता, द्रौपदी इत्यादि अनेक गुणसम्पन्न महिलाओं को सती के रूप में स्वीकार किया गया है। शिल्पकारों एवं कवियों ने उनकी प्रतिष्ठा में मूर्तियों का निर्माण एवं ग्रन्थों का प्रणयन किया है । आद्य तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव की यक्षिणी चक्रेश्वरी की मूर्ति कंकाली टीले से प्राप्त होती है । अम्बिका, सरस्वती, पद्मावती इत्यादि अनेक यक्षिणियों एवं देवियों की मनोज्ञ प्रतिमा भी नये उत्खननों से निरन्तर प्राप्त हो रही हैं। किन्तु खेदपूर्वक कहना पड़ रहा है कि अनेक जैन यक्ष-यक्षणियों की मूर्तियों को शास्त्रीय जानकारी के अभाव में अन्य धर्मों के मूर्ति समूह में सम्मिलित कर लिया जाता है । जैन समाज को अपने पुरातात्त्विक वैभव की रक्षा के लिए जैन मूति कला एवं उसके विकास से सम्बन्धित साहित्य का बड़ी मात्रा में वितरण कराना चाहिए। 0 सम्पादक - आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रस्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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