SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1572
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बना होगा। हमें लगता है कि जैसे क्लासिकल संस्कृत (Classical Sanskrit) के साथ-साथ जनभाषा चलती रही, वैसे ही वैदिक संस्कृति के साथ-साथ लोक धर्म या लोक संस्कृति भी साथ-साथ चलती रही । भागवान् बुद्ध २४वें बुद्ध थे और महावीर चौबीसवें तीर्थङ्कर थे । इससे भी पता चलता है कि इनके धर्म और विचार वैदिक संस्कृति के पीछे के नहीं बल्कि पूर्व के थे क्योंकि वेदों में भी इनकी चर्चा है। बहुत दिनों तक तो भगवान महावीर को ही जैनधर्म का जन्मदाता माना जाता रहा है। किन्तु इतिहास ने यह सिद्ध कर दिया है कि महावीर के पूर्व और कई तीर्थङ्कर हो चुके हैं ; यजुर्वेद में ऋषभदेव, अरिष्टनेमि और अजितनाथ की चर्चा मिलती है। उदयगिरि एवं खण्डगिरि के हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि जैन सम्राट् खार-बेल, पुष्यमित्र के समय मगध पर चढ़ाई कर जिस मूर्ति को प्राप्त करने में सफल हुए थे, वह आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव की प्रतिमा बतायी गयी है।' श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव को आदि तीर्थङ्कर बताया गया है।' ऋषभदेव की गणना मनु से पांचवें पीढ़ी में की गई है। इससे ऋषभदेव की अति प्राचीनता का स्पष्ट बोध होता है। पुराणों में ऋषभदेव को विष्णु के आठवें अवतार के रूप में स्मरण किया गया है। यहां यह द्रष्टव्य है कि गीतगोविन्द में भगवान बुद्ध को नवम अवतार के रूप में स्वीकार किया गया है। महाभारत के अनुसार अहिंसा धर्म और अहिंसक यज्ञ की कल्पना बुद्ध पूर्व थी जिसके प्रवर्तक घोर अंगिरस थे। इन्हें ही नेमिनाथ कहा गया है, जो कृष्ण के गुरु थे। ई० पू० ८वीं सदी में तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ हुए । उनका जन्म काशी में हुआ था। काशी के पास ही ग्यारहवें तीर्थङ्कर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था जिनके नाम पर सारनाथ का नाम चला आता है। श्रमण सम्प्रदाय का पहला संगठन पार्श्वनाथ ने किया था। इस तरह हम देखते हैं कि जैन धर्म एक बहुत ही प्राचीन धर्म है और श्रमण संस्कृति की एक मुख्य धारा के रूप में ऋषभदेव से अब तक प्रवहमान है। पार्श्वनाथ ने इस धर्म और संस्कृति को एक नया मोड़ दिया और इसे एक व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। पालि ग्रन्थों में निगण्ठनाथपुत्त और उसके 'चातुर्यामसंवर' की चर्चा मिलती है। चातुर्यामसंवर या चार महाव्रत से पार्श्वनाथ के ही धर्म का बोध होता है । सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह को चातुर्याम संवर बताया गया है।' श्रमणों में कदाचित् प्राचीनतम सम्प्रदाय निगण्ठों अथवा जैनों का ही था। ईसा से अगणित वर्ष पहले से जैनधर्म भारत में फैला हुआ था । आर्य लोग जब मध्यभारत में आये तब यहां जैन लोग मौजूद थे। गया के निकट बराबर और नागार्जुनी पहाड़ियों में निर्मित गुहाओं में अशोक-एवं उसके पौत्र दशरथ के अभिलेख मिल रहे हैं जिनमें आजीविकों की चर्चा है । ये आजीवक कौन थे? इनकी संस्कृति क्या थी ? पालि ग्रन्थों में आजीविकों की चर्चा मिलती है। ये प्रायः नग्न रहा करते थे और अत्यन्त दुष्कर तपश्चर्या में लीन रहा करते थे । बुद्ध काल में 'मक्खलिपुत्तगोसाल' को इस सम्प्रदाय का नेता माना गया है। वह अपने को उदायी कुण्डियायन का शिष्य बताता है । यह कुण्डियायन बुद्ध से लगभग १५० वर्ष पूर्व था। गोशाल नियतिवादी थे । पालि ग्रन्थों में 'किस्ससंकिच्च' और 'नन्दबच्छ' नामक अन्य दो आजीवक नेताओं का भी जिक्र मिलता है। 'गोसाल' को महावीर का शिष्य भी बताया गया है। हमें लगता है कि इन आजीविकों की भी एक लम्बी परम्परा वैदिक काल से ही रही है जो अन्ततः जैन संस्कृति में मिल गई । ब्रह्मजाल और सामञफलसुत्त से जैसा पता चलता है, बुद्धकाल में बासठ मतवाद एवं छः प्रमुख सम्प्रदायों की प्रसिद्धि थी। ये श्रमण कहे जाते थे। बुद्ध और महावीर काल में ये ही श्रमण कुछ बुद्ध और कुछ जैन हो गए और दोनों ने अपनी अलग-अलग संख्या बढ़ा ली। आज हमारे सामने मूल रूप से वैदिक, जैन एवं बौद्ध-तीन संस्कृतियां बची रह गई हैं। १. "जैन मान्यता के अनुसार यह धर्म अत्यन्त प्राचीन है और इसका श्रीगणेश सृष्टि से प्रारम्भ होता है। विश्व के विशाल कारण क्रम में तीर्थङ्करों की संख्या ७२० है, किन्तु मानवता के प्रचलित इतिहास में इनकी संख्या २४ है"-भारतीय धर्म एवं संस्कृति डॉ० बुद्ध प्रकाश, पृष्ठ ५६. २. नन्दराजनीतं च का (लि) ग जिनं सं निवेस...."अंग मगध वसु च नयति - खारवेल का हाथी-गुम्फा अभिलेख, भारत के प्राचीन अभिलेख, प्रभातकुमार मजूमदार, पृ० १०० ३ मनु-प्रियव्रत-अग्नीध्र- नाभि-ऋषभदेव-श्रीमद् भागवत-स्कन्ध-५ अध्याय २-६।। ४. निन्दसि यज्ञ विधेरह श्रुतिजातम् सदयहृदय-दशितपशुपातम् । धुतकेशव-बुद्ध-शरीर, जय जगदीश हरे । (गीत गोविन्दम्) ५. उपालि सुत्त-म०नि० । ६. दि शौर्ट स्टडी इन साइन्स ऑफ कम्परेटिव रीलिजीयन-मेजर जेनरल जे० सी० फारलांग । आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy