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________________ आत्म-तत्त्व की महत्ता तथा प्राधान्य को स्वीकार किया गया है। श्रमण-संस्कृति निवृत्ति प्रधान है और जैन धर्म तपप्रधान कर्म है । श्रमणसंस्कृति में आत्म शुद्धि को जीवन का प्रधान लक्ष्य माना गया है और इसी हेतु इस धर्म में तपस्या को बड़ी महिमा एवं प्रमुखता प्राप्त है। जैन धर्म और श्रमण संस्कृति की नींव आध्यात्मिकता, तपस्या, त्याग, सत्य एवं विश्व-प्रेम, विश्व-मंत्री के सूत्रों से निर्मित है। प्रायः ये समस्त तत्त्व भारतीय संस्कृति में सहजोपलब्ध हैं । श्रमण-संस्कृति के पाँच प्रधान महाव्रत हैं-- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । अहिंसा का जैन धर्म में बड़ा सम्मान तथा गुणगान मिलता है। श्रमण-संस्कृति में अहिंसा को अतीव व्यापक रूप में ग्रहण किया गया है । यदि हम अहिंसा को जैन दर्शन और संस्कृति का प्राण कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। किसी भी जीव की मन, वचन और काया से हिंसा न करने का नाम ही अहिंसा है। अहिंसा के व्यापक दायरे में दया, सहिष्णुता आदि के महान् गुण समाहित हैं। जैन मुनियों और सन्तों का जीवन व आचरण अहिंसा का सर्वोत्कृष्ट निदर्शन है। समूचा जैन समाज अहिसा को व्यावहारिक रूप में स्वीकार करता है । अस्तेय का शाब्दिक अर्थ होता है— चोरी न करना । परन्तु इस तत्त्व का गूढ़ार्थ अथवा मूल मन्तव्य यह है कि जो वस्तु अपनी नहीं उस पर आधिपत्य स्थापित नहीं करना चाहिए। आज की सभ्यता से उत्पन्न कलुषता, आपाधापी, दौड़-धूप, मृगतृष्णा के निराकरण का सर्वोत्तम उपाय या विधि अपरिग्रह है। संसार के सुखों का अपनी इच्छा से त्याग कर देना, तृष्णा से विरक्ति और अनेक वस्तुओं के संग्रह का मोह-स्वाग ही वास्तव में अपरिग्रह है असंचय ही अपरिग्रह है सत्य जीवन का सार है। सत्य ही जीवन है और जीवन ही सत्य है। ब्रह्मचर्य से शक्तियों का आसेचन होता है और हमारा मन एकोन्मुख होता है क्या गृहस्थ और क्या संन्यासी, साधु, यति — सबके लिए ब्रह्मचर्य की उपादेयता अगाध, अमोघ एवं अपरिहार्य मानी गई है। ब्रह्मचर्य निष्ठा, साधना तथा ध्यान- अन्विति की मंजूषा है । ब्रह्मचर्य तत्त्व को महावीर स्वामी ने जैन धर्म को प्रदान किया। श्रमण-संस्कृति की रगों में तप का शुद्ध, पवित्र, निर्मल और बहुमूल्य रक्त प्रवहमान है । कहने की आवश्यकता नहीं कि उपर्य ुक्त महाव्रतों को कार्य रूप में परिणत करने का सम्पूर्ण श्रेय तपश्चर्या को है । तप ही मानव को धर्म की ओर सोल्लास उन्मुख करता है । जैन धर्म में दो प्रकार के तप माने गये हैं: (क) बाह्य तप, (ख) आभ्यंतरिक तप । बाह्य तप के अन्तर्गत अनशन, अमोदरिका, भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, काया क्लेम, संलीनता आदि आते हैं। आभ्यन्तर तपों में प्रायश्वित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग आदि की गणना होती है। जहां बाह्य तप शरीर के दृश्यमान पदार्थों को शुद्ध करता है वहां आभ्यन्तर तप शरीर के आन्तरिक पदार्थों तथा तत्त्वों को विमल बनाकर, हमारे अन्तःकरण को शुचि करता है । कहने की आवश्यकता नहीं कि जैन संस्कृति के उपरिलिखित महाव्रतों की हिन्दू-संस्कृति में भी विशेष महत्ता है। उपनिषदों में यह तथ्य बारम्बार उभर कर आया है कि ईश्वर ने तप के बल से ही विश्व का निर्माण किया है। उपनिषदों में तपस्या पर बड़ा बल दिया गया है । जैन संस्कृति के मूलभूत दर्शन से गांधी-दर्शन सर्वाधिक रूप में प्रभावित हुआ । श्रमण-संस्कृति में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्ष के तीन मार्ग के रूप में ग्रहण किया गया है। आदि काल से ही श्रमण-संस्कृति मानव को इस सच्चिदानन्द मोक्ष की ओर बढ़ने की ही प्रेरणा देती आई है । अनेकान्तवाद ही एक ऐसा उपादान है जो श्रमण संस्कृति की मौलिकता, पृथक्ता तथा स्वयंभू स्थिति को सिद्ध करने में पर्याप्त शक्ति रखता है । अनेकान्तवाद जैसा दर्शन तत्त्व अन्यत्र सर्वथा अनुपलब्ध है। इसे जैन दर्शन में अनेक नामों से अभिहित किया गया है । यथा – स्याद्वाद, अपेक्षावाद, सप्तभंगी आदि । अनेकान्तवाद को जैनागम के जीव अथवा बीज के रूप में ग्रहण किया गया है। यह जैनदर्शन की महान विभूति और अनिर्वचनीय उपलब्धि है। यह वैचारिक दर्शन सत्य की अमर अजर शाश्वत स्थिति पर संस्थित है। यह निश्चय व्यवस्था का स्थापनकर्ता है। समन्वय की स्थिति को स्वीकार करने के कारण इसे अनेक धर्मात्मक रूप प्राप्त हैं । स्यात् का अर्थ कदाचित् होता है और स्थात् दोनों ही विरोधी स्थिति को स्वीकार करता है और यह मानता है कि कदाचित यह भी हो सकता है, कदाचिए यह भी ठीक है और कदाचित् वह भी हो सकता है और कदाचित् वह भी ठीक है। दोनों ही सम्भाव्य स्थितियों की संभावना की जाती है। उदाहरणार्थ बौद्ध दर्शन दुःखवादी दर्शन है। यह संसार को सदा क्षणिक रूप में ग्रहण करता है परन्तु सांख्य दर्शन के अनुसार संसार सर्वथा अविनाषी और मित्य है। RE Jain Education International आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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