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यक आदि के समान प्रशासनिक अधिकारी रहा होगा। दूसरे राजा हर्ष दिग्विजय के अवसर पर किसी वन ग्राम में कुटुम्बियों के घरों को देखकर वहां रहने लगते हैं । फलतः ये 'कुटुम्बी' सामान्य किसान न होकर राजा के विश्वासपात्र व्यक्ति रहे होंगे जिनपर युद्ध प्रयाण आदि के अवसर पर राजा तथा उसकी सेना के रहन-सहन तथा भोजन आदि की व्यवस्था का दायित्व भी रहता था। इस प्रकार हर्षकालीन भारत में कुटुम्बी ग्राम संगठन के प्रशासनिक ढांचे से पूर्णतः जुड़ चुके थे।
कात्यायन के वचनानुसार श्रोत्रिय विधवा, दुर्बल आदि कुटुम्बी को 'राजबल' माना गया है तथा इनकी प्रयत्न पूर्वक रक्षा करने का निर्देश दिया गया है। मध्यकालीन भारत के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सोमदेव के नीतिवाक्यामत (१०वीं शती ई.) में कुटुम्बियों को बीजभोजी कहा गया है तथा उनके प्रति अनादर की भावना अभिव्यक्त की गयी है। इसी प्रकार नीतिवाक्यामत में राजा को निर्देश दिए गए हैं कि वे द्यूत आदि व्यसनों के अतिरिक्त कारणों से आए हुए कुटुम्बियों के घाटे को पूरा करें तथा उन्ह मूलधन देकर सम्मानित करें। नीतिवाक्यामृत के इन उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि 'कुटुम्बी' राजा के प्रशासन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते थे किन्तु सामन्तवादी भोग-विलास तथा सामान्य कृषकों के साथ दुर्व्यवहार करने के कारण इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा समाप्त हो चकी थी। नीतिवाक्यामत में सामान्यतया किसान के लिए शद्रकर्षक प्रयोग मिलता है अतएव 'कुटुम्बी' को उन धनधान्य सम्पन्न किसानों के विशेष वर्ग के रूप में समझना चाहिए जो परवर्ती काल में जमींदार के रूप में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना सके थे ।
बारहवीं शताब्दी ई० मध्यकालीन सामन्तवादी अर्थव्यवस्था की चरम परिणति मानी जाती है। इस समय तक ग्राम संगठन पर्णत: सामन्तवादी प्रवृत्तियों से जकड़ लिए गए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि ग्राम संगठनों के कुटुम्बी आदि ठीक उसी प्रकार समझे जाने लगे थे जैसे सामन्त राजा। हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित महाकाव्य में युद्ध प्रयाण के अवसर पर ग्रामाधीश आदि स्वयं को कटम्बियों के समान कर देने वाले तथा अधीन रहने वाले बताते हैं। त्रिषष्टि० में एक दूसरे स्थान पर कटम्बियों को सेना तथा सामन्त राजाओं के समान अधीनस्थ माना गया है। हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में आए ये उल्लेख यह
१. 'क्वचिदसहाय: क्लेशाजितक ग्रामक टुम्बिसम्पादितसीदत्सौरभेव........ क्वचिन्नरपतिदर्शनक त रलादुभयत: प्रजवितप्रधावित ग्रामेयकजनपदय मार्गग्रामनिर्गत राग्रहारिकजाल्म: पुरःसरजरन्महत्तरोम्भिताम्भः कुम्भैरुपायनीकृत्य दधिगुडखण्डक सुमकरदण्डैर्धनघटितपेटक:।'
हर्षचरित, सप्तम उच्छ वास, १०,५६,- सम्पादक-पी० बी० काणे, दिल्ली, १९६५. २. 'पोष्यमाणवनविडालमालुधाननक लशालिजातजातकादिभिरविक टुम्बिनां गृहरुपेत वनग्रामक' ददर्श तवं व चावसदिति।'
हर्षचरित, पृ०६६. हर्षचरित में पाए कटुम्बी विषयक अन्य उल्लेख--- 'पत्नबीटावृतमुख: पीतक :रुढवारिणा पुर:सरवमवलीवर्दयुगसरेण नकटिक क टुम्बिलोकेन काष्ठसंग्रहार्थमटवीं प्रविशता:'
हर्ष, प०६८. -'सोऽयं सुजन्मा मगहीतनामा तेजसां राशि: चतुरुदधिकेदारकुटम्बी भोक्ता ब्रह्मस्तम्भफलस्य सकलादिराजचरितजयज्येष्ठमल्लो देवः परमेश्वरो हर्ष:।'
हर्ष० प० ३५. –'प्रातिवेश्यविषयवासिना नैकटिकटु म्बिकलोकेन'
हर्ष०१० २२६. ३. Thapar Romila, A History of India, Part I, Great Britain, 1974, pp. 242-43. ४. 'श्रोत्रिया विधवा बाला बलाश्च कटुम्बिनः । एते राजबला राशा रक्षितव्या प्रयत्नतः॥'
(कात्यायन), कृत्यकल्पतरु, राजधर्मकाण्ड, भाग ११, पृ.८४. 'बीजभोजिन: कुटुम्बिन इव नास्त्यधार्मिकस्याय त्यां किमपि शुभम् ।'
नीतिवाक्यामृत, १.४५. 'मव्यसनेन क्षीणधनान् मूलधनप्रदानेन कुटुम्बिन: प्रतिसम्भावयेत् ।'
नीतिवाक्यामृत, १७.५३. नीतिवाक्यामृत, १६.८. "Out of the revenue retained by the vassal he was expected to maintain the feudal leview which underlying his oath of loyality to his king, he was in duty bound to furnish for the king's services. To break his oath was regarded as a heinous offence.'
Thapar, Romila, A History of India, Part I, p. 242. तण विषष्टिशलाकापुरुषचरित, २.४.१७०-७२.
'कटम्बिका हब क्यं करदा वशगाश्च वः ।' विषष्टिशलाका०, २.४.१७३. १.. 'कुटुम्बिनः पत्तयो वा सामन्ता वा त्वदाज्ञया। प्रतः परं भविष्यामस्त्वदधीना हि नः स्थितिः॥'
विषष्टिशलाका०,२.४.२४०
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