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________________ आई है किन्तु इस सन्दर्भ में भी 'कुटुम्बी' के अर्थ-निर्धारण में मत-वैभिन्य देखा जाता है । कौटिल्य अर्थशास्त्र में आए इस 'कुटुम्बी' को प्रायः 'गृहस्थ', 'श्रमिक', 'नागरिक', निम्न वर्ग के 'दुर्गान्तवासी" आदि विविध अर्थों में ग्रहण किया जाता है । इस प्रकार ईस्वी पूर्व के प्राचीन साहित्य में उपलब्ध ‘कुटुम्ब' के परिवार अर्थ में तो कोई आपत्ति नहीं किन्तु इससे सम्बद्ध 'कुटुम्बी' का स्वरूप संदिग्ध एवं अस्पष्ट जान पड़ता है । ईस्वी पूर्व के जैन आगम ग्रन्थ तथा जैन शिलालेख 'कुटुम्बी' के अर्थ निर्धारण की दिशा में हमारी बहुत सहा. यता करते हैं। जैन आगम कल्पसूत्र में भगवान् महावीर के आठवें उत्तराधिकारी सुत्थिय' द्वारा 'कौटिक' अथवा 'कोडिय'गण की स्थापना करने का उल्लेख आया है जो कि बाद में चार शाखाओं में विभक्त हो गया था। संभवत: वायु पुराण में गोत्र प्रवर्तक 'कुटुम्बी' कल्पसूत्रोक्त 'कोटिक' अथवा 'कोडिय' से बहुत साम्यता रखता है। कोडिय गण में फूट पड़ने के कारण जो चार शाखाएं अथवा कुल बन गए थे उनमें 'वणिय' अथवा 'वणिज्ज' नामक कुल भी रहा था । कल्पसूत्रोक्त इस सामाजिक संगठन में फूट पड़ने की घटना की वासिट्ठिपुत-अभिलेख (ल्यूडर्स संख्या-११४७) से भी तुलना की जा सकती है । इस लेख में कहा गया है कि मध्यमवर्ग के कृषक तथा वणिक लोग परस्पर टूटकर स्वतन्त्र गहों तथा कुटुम्बों (कुलों) में विभक्त हो गए थे।" Siri Pulumayi के अनुसार इन गृहों तथा कुटुम्बों के मुखिया क्रमश: 'गृहपति' तथा 'कुटुम्बी' कहलाते थे।" कल्पसूत्र तथा औपपातिक सूत्र में 'कौडुम्बिय' (कौटुम्बिक) का उल्लेख 'माडम्बिय' (माडम्बिक)'तलवर' आदि प्रशासनिक अधिकारियों के साथ आया है, जो यह सिद्ध करता है कि जैन आगम ग्रन्थों के काल में 'कौडुम्बिय' अथवा 'कौटुम्बिक' प्रशासनिक पदाधिकारियों के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा था । इस संबन्ध में कल्पसूत्र की एक टीका के अनुसार 'कोडुम्बिय' अथवा 'कौटुम्बिक उन अनेक कुटम्बों (कूलों) अथवा परिवारों के स्वामी थे जिन्हें प्रशासकीय दृष्टि से 'अवलगक' अथवा 'ग्राम-महत्तर' के समकक्ष समझा जा सकता था - कौटुम्बिका:--कतिपयकदम्बप्रभवोबलगका: ग्राममहत्तरा वा" प्रस्तुत टीका में आए 'अवलगक' को लगान एकत्र करने वाले ग्रामाधिकारी के रूप में समझना चाहिए। बंगाल के हजारीबाग जिले के 'दुधपनि स्थान से प्राप्त शिलालेख में वर्णित एक घटना के अनुसार राजा आदिसिंह द्वारा भ्रमरशाल्मलि नामक पल्ली ग्राम में ग्रामवासियों की इच्छा से एक धन धान्य सम्पन्न वणिक को 'अवलगक' के रूप में नियुक्त करने का उल्लेख आया है। वह 'अवलगक' राजा का विशेष पक्षपाती व्यक्ति था तथा पल्ली ग्राम का राजा कहलाता था। इस शिलालेख से 'अवलगक' को राज्य प्रशासन की ओर से नियुक्त अधिकारी के रूप में सिद्ध करने २. तुल १. तुल०-'कर्मान्तक्षेत्रवशेन वा कुटुम्बिना सीमानां स्थापयेत ।' अर्थशास्त्र, २.४.२२, संपादक,टी. गणपति शास्त्री, त्रिवेन्द्रम, १९२४. तुल०-'कुटुम्बियों' अर्थात साधारण गृहस्थ के कारखाने, अर्थशास्त्र, अनु० रामतेज शास्त्री, पृ० ६२. à 'Families of workmen may in any other way be provided with sites befitting their occupation and field work.' Sham Shastri, Kautilya's Arthaśāstra, Mysore, 1951/p.54. नगर में बसने वाले परिवारों के लिए निवास भूमि का निर्णय'-उदयवीर शास्त्री, मनु० अर्थशास्त्र, पृ० ११४. ___ कम्बिना दर्गान्तवासयितव्यानां वर्णावराणां, कर्मान्तक्षेत्रवशन"""सीमानं स्थापयेत । -अर्थशास्त्र, २.४.२२, टी० गणपति शास्त्रीकृत श्रीमल टीका. ६. Sacred Books of the East, Vol. XXII, p. 292. ७. Buhler.J.G.. The Indian Sect of the Jainas, Calcutta, 1963, p.40. ८. वही, पृ०४०. ९. I.A., Vol. XLVIII, p. 80. वही, पृ० ८०. ११. वही, पृ० ८०. कल्पसूत्र, २.६१. भोपपातिक, १५. Stein, Otto, The Jinist Studies, p.79. १५. तल. 'मालवन'-फसल काटना (ल) तथा 'पार्वन'-पहली फसल जो गृह देवताओं को समर्पित की जाती है। -Turner, R.L., A Comparative Dictionary of the Indo Aryan, London, 1912, p. 62. १६. Stein, Otto. The Jinist Studies, p. 80. १७. वही, पृ० ८०. १४. जैन इतिहास, कला और संस्कृति ..... Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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