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________________ ये जो असली काश्तकारों और राजाओं के बीच की कड़ी बने हुए थे। इन्हीं राजनैतिक तथा आविक परिस्थतियों के सन्दर्भ में मध्यकालीन ग्राम संगठनों का शासन प्रबन्ध की दृष्टि से विशेष महत्व हो गया था । सामन्त राजाओं ने ग्राम संगठन पर पूर्ण निय त्रण रखने के उद्देश्य से ग्रामों में रहने वाले जमींदारों, शिल्पी प्रमुखों, जाति प्रमुखों आदि को भी शासन प्रबन्ध में अपना भागीदार बना लिया था । के ग्राम संगठन के इसी वैशिष्ट्य के संदर्भ में महत्तर' तथा 'कुटुम्ब' शब्दों का इतिहास बिरा हुआ है। इन दोनों अर्थों को समझने के लिए प्राचीन तथा मध्यकालीन ग्राम संगठन के उन दोनों स्वरूपों को समझना अत्यावश्यक है जिसमें सर्वप्रथम ग्राम संगठन सामाजिक संगठन की मूल इकाई रहे किन्तु परवर्ती काल में इन पर राजतन्त्र का विशेष अंकुश लगा जिसके कारण 'ग्राम संगउनका भचित्य आर्थिक एवं राजनैतिक मूल्यों की दृष्टि से किया जाने लगा। परिणामतः महत्तर' एवं 'कुटुम्बी' के पदों का प्रार म्भिक स्वरूप सामाजिक संगठन परक होने के बाद भी मध्यकाल में राजनैतिक व्यवस्था के अनुरूप राजकीय प्रशासनिक पद के रूप में परिवर्तित हो गया । * महत्तर- 'महत्' शब्द से तरप् प्रत्यय लगाकर 'महत्तर' शब्द का निर्माण हुआ है। इस तरप् प्रत्यय के आग्रह से ऐसी पूर्ण सम्भावना व्यक्त होती है कि 'महत्तर' किसी अन्य व्यक्ति अथवा पद की तुलना में बड़ा रहा होगा । इस संदर्भ में अग्निपुराण के उल्लेखानुसार पांच कुटुम्बियों के बाद छठे 'महत्तर' की व्यवस्था दी गई है। अग्निपुराण के इस उल्लेख में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पांच कुटुम्बों वाले ग्राम तथा छठे महत्तर की संगठित शक्ति को बड़े से बड़ा शक्तिशाली व्यक्ति पराजित नहीं कर सकता । इस प्रकार ग्राम संगठन के संदर्भ में विभिन्न कुलों अथवा कुटुम्बों के मुखिया 'कुटुम्ब' कहलाते थे तथा उन पांच-छः कुटुम्बियों के ऊपर 'महत्तर' का पद था। रामायण में एक स्थान पर 'जनश्च शूद्रोऽपि महत्त्वमीयात्' कहकर अप्रत्यक्ष रूप से शूद्र जाति के 'महत्तर' की ओर संकेत किया गया है। शब्दकल्पद्रुम में महाभारत के नाम से 'महत्तर' का उल्लेख करने वाले एक पद्य को उद्धृत किया गया है, किन्तु महाभारत में 'क्रिटिकल एडिसन' में इस पद्य के 'महत्तर' पाठ के स्थान पर 'बृहत्तर' पाठ स्वीकृत किया गया है। अतएव रामायण एवं महाभारत में आए 'महत्तर' के सम्बंध में कुछ कहना कठिन है । कात्यायन के वचनों के अनुसार 'महत्तर' ग्राम का प्रतिष्ठित व्यक्ति होता था तथा ग्राम के सभी झगड़ों का निपटान करता था। इतिहासकारों के अनुसार अग्निपुराण आदि में बाए महत्तर' सम्बन्धी उल्लेख यह सिद्ध नहीं करते हैं कि यह राजा द्वारा एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में नियुक्त किया जाता था। इस संबंध में अभयकान्त चौधुरी महोदय की धारणा है कि राजा प्रायः बड़े-बड़े ग्रामों के ग्राम प्रमुखों को नियुक्त करता था किन्तु पांच-छह छोटेछोटे गांवों के प्रशासन को ग्राम के वे प्रतिष्ठित व्यक्ति ही चला लेते थे जो प्रायः धन-धान्य सम्पन्न होते थे तथा सुशिक्षित भी।' इस तर्क के आधार पर चौधुरी महोदय अति पुराण में आए महत्तर' को भी ग्राम के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति से अधिक कुछ नहीं मानते।' इस विषय में यह कहना अपेक्षित होगा कि अग्निपुराण में पांच कुटुम्बों से युक्त ग्राम तथा छठे 'महत्तर' का जो निर्देश हुआ है वह निःसंदेह यह स्पष्ट कर देता है कि 'महत्तर' ग्राम का वह महत्वपूर्ण व्यक्ति होता था जिसके अधीन कम से कम पांच कुटुम्बों के मुखिया 'कुटुम्बी' आते थे । इस प्रकार अग्नि पुराण में तत्कालीन ग्राम संगठन का एक व्यवस्थित स्वरूप दिया गया है तथा यह महत्वपूर्ण नहीं १. २. अग्निपुराण, १६५.११ ३. शब्दकल्पद्रम, भाग ३, पृ० ६५२ पर उद्धृत रामायण १.१.१०१ तथा हलायुधकोश पर उद्भुत पृ० ५२१ डॉ० ० रामाश्रय शर्मा ने रामायण के २.९४.२६ उद्धरण के श्राधार पर रामायण काल में 'श्रेणीमहत्तर' के अस्तित्व की पुष्टि की है किन्तु वर्तमान में उपलब्ध रामायण के अधिकांश संस्करणों में यह सन्दर्भ अनुपलब्ध है । ४. ५. तुल० 'प्रथमनयोरतिशयेन महान्' स्यारराजा राधाकान्त देवबहादुरकृत शब्दकल्पद्रुम, भाग ३, पृ० ६५२. 'कुटुम्बैः पञ्चभिर्ग्रामः षष्ठस्तव महत्तरः । देवासुरमनुष्यैव स जेतुं नैव शक्यते ॥' ८२ Sharma, Ramashraya, A Socio- Political Study of the Valmiki Rāmāyana, Delhi, 1971, p. 373. वही, महाभारत, ७.१७२. ५६ - प्रणीयां समणुम्य च बृहदम्यञ्च महत्तरम् ।" तुल० 'ददर्श भृशदुर्दशां सर्वदेवंरपीश्वरम् । वणीयसामणीयांशं बृहद्भ्यश्च वृहत्तरम् ॥' महाभारत, पूना संस्करण, ७.१७२.५६. ६. तुल० 'सर्वकार्य प्रवीणाश्चालुब्धा वृद्धा महत्तराः ॥ धर्म कोष भाग - १, पृ० ६१ पर उद्धृत । ७. Choudhary, Abhay Kant, Early Medieval Village in North-Eastern India, Calcutta, 1971, p. 217. ८. वही, पृ० २१७-१८. ६. 'The mahattara', as mentioned in a verse of the Agni Purana (165.11), may look like a village head, but he does not enjoy the status of the 'grāmapati' or the 'grāmabhartā' duly appointed by the king', lbid., p.217. आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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