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१३. उपवास के बाद मित और हल्का आचाम्ल भोजन लेना चाहिए।'
सामाजिक जीवन-मूलाराधना में सामाजिक जीवन का पूर्ण चित्र तो उपलब्ध नहीं होता, किन्तु जो सामग्री उपलब्ध है, वह बड़ी रोचक है । उसका परिचय निम्न प्रकार है:
नारी के विविध रूप-यह आश्चर्य का विषय है कि मूलाराधनाकार ने नारी के प्रति अपने अनुदार विचार व्यक्त किए हैं। उसके प्रति वह जितना रूक्ष हो सकता था, हुआ है तथा परवर्ती आचार्यों को भी उसने अपनी इन्हीं भावनाओं से अभिभूत किया है । इस अनुदारता का मूल कारण सैद्धान्तिक ही था। इसके चलते जैन-संघ के एक पक्ष ने जब उसके प्रति अपनी कुछ उदारता दिखाई तो संघ-भेद ही हो गया। मेरी दृष्टि से इस अनुदारता का कारण सैद्धान्तिक तो था ही, दूसरा कारण यह भी रहा होगा कि निश्चित सीमा तक गाहंस्थिक सुख-भोग के बाद नारी एवं पुरुष मन, वचन एवं काय से पारस्परिक व्यामोह से दूर रहें । नारी स्वभावतः ही क्षमाशील, वष्टसहिष्णु एवं गम्भीर होती है । आचार्यों ने सम्भवतः उनके इन्हीं गुणों को ध्यान में रखकर तथा पुरुषों की उनके प्रति सहज आकर्षण की प्रवृत्ति से उन्हें विरक्त करने के लिए उसके शारीरिक एवं वैचारिक दोषों को प्रस्तुत किया है । इसका अर्थ यह कदापि नहीं लेना चाहिए कि नारी समाज के प्रति स्वतः ही उनके मन में किसी प्रकार का विद्वेष-भाव था। मुझे ऐसा विश्वास है कि आचार्यों के उक्त विचारों को तत्कालीन समाज विशेषतया नारी-समाज ने स्वीकार कर लिया था, अन्यथा उसके प्रबल विरोध के सन्दर्भ प्राप्त होने चाहिए थे। मूलाराधना में नारियों की निन्दा लगभग ५० गाथाओं में की गई है। एक स्थान पर कहा गया है-"जो व्यक्ति स्त्रियों पर विश्वास करता है, वह बाघ, विष, चोर, आग, जल-प्रवाह, मदोन्मत्त हाथी, कृष्णसर्प और शत्रु पर अपना विश्वास प्रकट करता है।" "कथंचित् व्याघ्रादि पर तो विश्वास किया जा सकता है किन्तु स्त्रियों पर नहीं।" "स्त्री शोक की नदी, वैर की भूमि, कोप का समन्वित रूप, कपटों का समूह एवं अकीत्ति का आधार है।" "यह धननाश की कारण, देह में क्षय रोग की कारण एवं अनर्थों की निवास तथा धर्माचरण में विघ्न और मोक्ष मार्ग में अर्गला के समान है।"५
इस प्रसंग में कवि की नारी सम्बन्धी कुछ परिभाषाएं देखिए, वे कितनी मौलिक एवं सटीक हैं :वह-वधु-पुरुष का विविध प्रकार की मानसिक एवं शारीरिक क्रियाओं-प्रक्रियाओं द्वारा एक साथ अथवा क्रमिक ह्रास,
क्षय अथवा वध करने वाली होने के कारण वह स्त्री वधु कहलाती है। (वधमुपनयति इति वधु) स्त्री-पुरुष में दोषों का समुदाय संचित करने के कारण स्त्री स्त्री कहलाती है।' नारी-मनुष्य के लिए न+अरि=नारी के समान दूसरा शत्र नहीं हो सकता । अतः वह नारी कहलाती है।' प्रमदा-मनुष्य को वह प्रमत्त-उन्मत्त बना देती है, अत: प्रमदा कहलाती है। विलया-पुरुष के गले में अनर्थों को बाँधती रहती है, अथवा पुरुष में लीन होकर वह उसे लक्ष्यच्युत कर देती है, अतः
विलया कहलाती है। युवती एवं योषा-पुरुष को दुखों से युक्त करती रहती है, अतः वह युवती एवं योषा कहलाती है।"
अबला-हृदय में धैर्य दृढ़ न रहने के कारण वह अबला कहलाती है।" कुमारी-कुत्सित मरण के उपाय करते रहने के कारण वह कुमारी कहलाती है।" महिला-पुरुष के ऊपर दोषारोपण करते रहने के कारण वह महिला कहलाती है।"
दण्ड-प्रथा-मौर्यकालीन दण्ड-प्रथा के विषय में प्राप्त जानकारी के आलोक में शिवार्यकालीन दण्ड-प्रथा का अध्ययन कुछ मनोरंजक तथ्य उपस्थित करता है। अशोक पूर्वकालीन दण्ड-प्रथा अत्यन्त कठोर थी। अंगछेदन, नेत्रस्फोटन एवं मारण की सजा उस समय सामान्य थी, किन्तु सम्राट अशोक ने उसमें पर्याप्त सुधार करके अपनी दण्डनीति उदार बना दी थी। अवश्य ही उसने मत्यु-दण्ड को सर्वथा क्षमा नहीं किया था, फिर भी परलोक सुधारने के लिए उसने तीन दिन का अतिरिक्त जीवन-दान स्वीकृत कर दिया था।
कहलाती है।
कारण वाता है।"
१. दे० गाथा २५१ २-३. दे० गाथा ६५२-५३. ४-५. दे० गाथा ९८३-८५. ६-७. दे० गाथा ६७७.
८-६. दे० गाथा ६७८ १०.१४. दे० वाथा ६७९-८२.
आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पत्र
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