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भारतीय धार्मिक समन्वय में जैन धर्म का योगदान
प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी
भारत का प्राचीन इतिहास समन्वयात्मक भावना से ओतप्रोत या । इस देश में अनेक भौगोलिक, जनपदीय विभिन्नताओं के होने पर भी सांस्कृतिक दृष्टि से यह देश एक था। इस संश्लिष्ट संस्कृति के निर्माण में भारतीय धार्मिक-सामाजिक प्रणेताओं तथा आचार्यों का प्रभूत योगदान रहा है।
हमारे मनीषी संस्कृति-निर्माताओं ने देश के विभिन्न भागों में विचरण कर सच्चे जीवन-दर्शन का संदेश फैलाया। धीरेधीरे भारत और उसके बाहर अनेक संस्कृति-केन्द्रों की स्थापना हुई। इन केन्द्रों पर समय-समय पर विभिन्न मतावलंबी लोग मिलकर विचार-विमर्श करते थे। सांस्कृतिक विकास में इन केन्द्रों का बड़ा योगदान था। भारत में तक्षशिला, मथुरा, वाराणसी, नालंदा विदिशा, विक्रमशिला, देवगढ़, वलभी, प्रतिष्ठान, कांची, श्रवणबेलगोल आदि अनेक सांस्कृतिक केन्द्र स्थापित हुए।
ईसा से कई शताब्दी पूर्व मथुरा में एक बड़े जैन स्तूप का निर्माण हुआ। जिस भूमि पर वह स्तूप बनाया गया था, वह अब ककाली टीला कहलाता है। इस टीले के एक बड़े भाग की खुदाई पिछली शताब्दी के अंतिम भाग में हुई थी, जिसके फलस्वरूप एक हजार से ऊपर विविध पाषाण-मूर्तियां मिली थीं। हिन्दू और बौद्ध धर्म सम्बन्धी कुछ इनी-गिनी मूर्तियों को छोड़कर इस खुदाई में प्राप्त शेष सभी मूर्तियां जैनधर्म से सम्बन्धित थीं। उनके निर्माण का समय ई० पू० प्रथम शती से लेकर ११०० ईसवी तक है । कंकाली टीला तथा ब्रज क्षेत्र के अन्य स्थानों से प्राप्त बहुसंख्यक जैन मंदिरों एव मूर्तियों के अवशेष इस बात के सूचक हैं कि वहां एक लंबे समय तक जैन धर्म का विकास होता रहा।
बौद्धों ने भी मथुरा में अपने कई केन्द्र बनाये, जिनमें चार मुख्य थे। सबसे बड़ा केन्द्र उस स्थान के आस-पास था जहां आजकल कलक्टरी कचहरी है। दूसरा शहर के उत्तर में यमुना के किनारे गोकर्णेश्वर और उसके उत्तर की भूमि पर था। तीसरा यमुना-तट पर ध्रुवघाट के आसपास था। चौथा केन्द्र श्रीकृष्ण-जन्मस्थान के पास गोविंदनगर क्षेत्र में था। हाल में वहां से बहुसंख्यक कलाकृतियों तथा अभिलेखों की प्राप्ति हुई है, जो राज्य-संग्रहालय मथुरा में सुरक्षित हैं । अनेक हिन्दू देवताओं की प्रतिमाओं की तरह भगवान् बुद्ध की मूर्ति का निर्माण भी सबसे पहले मथुरा में हुआ । भारत के प्रमुख चार धर्म भागवत, शैव, जैन तथा बौद्ध ब्रज की पावन भूमि पर शताब्दियों तक साथ-साथ पल्लवित-पुष्पित होते रहे। उनके बीच ऐक्य के अनेक सूत्रों का प्रादुर्भाव ललित कलाओं के माध्यम से हुआ, जिससे समन्वय तथा सहिष्णुता की भावनाओं में वृद्धि हुई। इन चारों धर्मों के केन्द्र प्रायः एक-दूसरे के समीप थे । बिना पारस्परिक द्वेषभाव के वे कार्य करते रहे।
भारत का एक प्रमुख धार्मिक तथा कला का केन्द्र होने के नाते मथुरा नगरी को प्राचीन सभ्य संसार में बड़ी ख्याति प्राप्त हुई। ईरान, यूनान और मध्य एशिया के साथ मथुरा का सांस्कृतिक सम्पर्क बहुत समय तक रहा। उत्तर-पश्चिम में गंधार प्रदेश की राजधानी तक्षशिला की तरह मथुरा नगर विभिन्न संस्कृतियों के पारस्परिक मिलन का एक बड़ा केन्द्र बना रहा, इसके फलस्वरूप विदेशी कला की अनेक विशेषताओं को यहां के कलाकारों ने ग्रहण किया और उन्हें देशी तत्त्वों के साथ समन्वित करने में कुशलता का परिचय दिया । तत्कालीन एशिया तथा यूरोप की संस्कृति के अनेक उपादानों को आत्मसात् कर उन्हें भारतीय तत्वों के साथ एकरस कर दिया गया। शकों तथा कुषाणों के शासन-काल में मथुरा में जिस मूर्तिकला का बहुमुखी विकाप्त हुआ, उसमें समन्वय की यह भावना स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है।
वैदिक धर्म के विकास को जानने तथा विशेषरूप से स्मार्त-पौराणिक देवी-देवताओं के मूति-विज्ञान को समझने के लिए व्रज की कला में बडी सामग्री उपलब्ध है। ब्रह्मा, शिब, वासुदेव, विष्णु, देवी आदि की अनेक मूर्तियां व्रज में मिली हैं, जिनका समय
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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