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________________ भाषा अर्थात् सामान्य जनता की भाषा को प्रमुख स्थान मिला। अर्धमागधी, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश आदि भाषाएँ जैनाचार्यों के जनसंपर्क की भाषाएँ बनीं और इनके द्वारा उपदेशों का प्रचार हुआ । जैनाचार्य संस्कृत भाषा में पूर्ण पारंगत थे किन्तु प्राकृत जन के साथ सौहार्द स्थापित करने के लिए उन्होंने लोकभाषाओं का प्रश्रय लिया था । जैन संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है चिन्तन में उदारता। किसी एक विचार को पकड़ कर उसका आग्रह व्यक्त करना जैन संस्कृति में नहीं है। इसलिए अनेकान्त जैसे उदार दर्शन की स्थापना हुई। किसी भी विषय में किसी एक विचार को अन्तिम सत्य नहीं कहा जा सकता। पक्ष-प्रतिपक्ष पर विचार करने से उसी विचार के अनेक विन्दु हो सकते हैं। दृष्टि-भेद से भी वस्तु-भेद होता है। सापेक्षता से भी भेद लक्षित किया जा सकता है। संभावनाओं की इयत्ता न होने से अनेकान्त सिद्धान्त का अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है। किसी भी वस्तु या विचार को हम एकायामी नहीं ठहरा सकते । एक समय में हम किसी वस्तु की सम्पूर्णता का कथन नहीं कर सकते। जब हम किसी वस्तु को परिभाषित करते हैं तब किसी विशेष दृष्टि से ही करते हैं, वह दृष्टि समग्र-दृष्टि नहीं होती। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि हम वस्तु को समग्रतम दृष्टि से देखें, परखें और अपने मत को अंतिम सत्य न समझें । इस दृष्टिकोण से वस्तु के समझने में विवाद नहीं होता। इसी सिद्धान्त को दूसरी दार्शनिक शब्दावली में 'स्याद्वाद' शब्द से अभिहित किया गया है । जैन संस्कृति की उदार दृष्टि इस स्याद्वाद में भी समाहित है। यह वस्तु ऐसी है, ऐसी भी है और ऐसी से कुछ भिन्न भी है। कैसी है, यह इसकी सम्पूर्णता में कथन करना दुष्कर है। जब हम अपने पक्ष के प्रतिपादन के साथ प्रतिपक्ष को भी समझने और ग्रहण करने की गुंजाइश लेकर चलते हैं तो उदारता, सहिष्णुता, समता और सामरस्य का वातावरण बनता है जो सुसंस्कृत समाज का लक्ष्य है। जैनधर्म में संस्कृति का यह उच्चादर्श चिन्तनमनन के क्षेत्र में सर्वत्र लक्षित किया जा सकता है। जैन संस्कृति की यह मौलिक देन है जो मत-मतान्तरों के संघर्ष और वैमनस्य को समूल नष्ट करती है। स्थाद्वाद का सिद्धान्त सूक्ष्म दार्शनिक सिद्धान्त होने के साथ व्यावहारिक जीवन का भी मार्गदर्शक सिद्धान्त है। संस्कृति के क्षेत्र में यह एक बड़ा प्रकाश-स्तम्भ है। इस सिद्धान्त में व्यक्ति-स्वातंत्र्य की पूर्णरूपेण रक्षा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने विचार को रखता हुआ वस्तुपरक दृष्टि से तत्त्व चिन्तन कर सकता है। जैन संस्कृति में आचार-मर्यादा को प्रमुख स्थान दिया गया है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक चरित्र का विधान है। यह त्रयी जीवन के श्रद्धा, तर्क और आचरण के सम्मिलन से सदाचार का पथ प्रशस्त करती है। यदि हम इन तीनों का सम्यक बोध करलें तो जीवन में सांस्कृतिक दृष्टि से उच्चादर्श तक पहुंच सकते हैं। यह शब्दत्रयी अपने परिवेश में उन सब उदात्त गुणों को समेट लेती है जो मानव-समाज को कल्याण के पथ पर ले जाते हैं। आचरण की पवित्रता के लिए जैन धर्म में पांच व्रतों का विधान है। ये पाँच महाव्रत तथा दश नियम योगदर्शन के यमनियमों के समान ही हैं । पाँच व्रतों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य हैं । श्रावक इनका आंशिक रूप से भी पालन करें तो उनके जीवन में सुख-संतोष का समावेश होगा। साधुओं के लिए इन व्रतों का पालन अनिवार्य है और पूर्णरूपेण उन्हें इनको अपनी चर्या में स्थान देना होता है। अहिंसा का जो रूप सामान्यतः समझा जाता है, जैन धर्म में उतना ही पर्याप्त नहीं है। अहिंसा मन, वचन और कर्म तीनों स्थलों पर ग्रहण करनी होती है तभी व्यक्ति पूर्ण अहिंसक बनता है। अपरिग्रह तो जैन साधुओं में आज भी देखा जा सकता है। मनुष्य स्वभाव से परिग्रही होता है, उसे अपरिग्रही बनाना सरल नहीं है। किन्तु अपरिग्रही बनने पर इस क्षणभंगुर संसार का समस्त वैभव तृणवत् त्याज्य बन जाता है। ब्रह्मचर्य का व्रत नारी जाति के सम्मान और प्रतिष्ठा से जुड़ा है। समाज में नारी को प्रतिष्ठा तभी मिलेगी जब लम्पटता, दुराचार, व्यभिचार आदि दूषित वृत्तियाँ दूर होंगी। इनके लिए ब्रह्मचर्य व्रत की आवश्यकता स्वयंसिद्ध है। जैन धर्म में सामाजिक वैषम्य की किसी रूप में भी स्वीकृति नहीं है। जैन संस्कृति सामाजिक न्याय, मंत्री और समता पर बल देकर बंधुता की स्थापना करती है। भगवान् महावीर ने जैन संस्कृति की पुनःस्थापना करते हुए इन सभी जीवन-मूल्यों को समाज के लिए अनिवार्य माना है। मनुष्य के संस्कार-संवर्धन के लिए इन उदात्त गुणों का ग्रहण जिस समाज में होगा, वह स्वयमेव सुसंस्कृत हो जाएगा। जैन संस्कृति का प्रमुख लक्ष्य व्यक्ति और समाज को एक अहिंसक, शान्तिप्रिय, निर्भीक, प्रीतिपूर्ण, सौहार्दपूर्ण, सृजनोन्मुख जीवन-शैली प्रदान करता है। जैनाचार्यों के समस्त शास्त्र और उपदेश-वचन विषमता में समता की स्थापना करने में प्रवृत्त रहे हैं। वैचारिक सहिष्णुता इस संस्कृति का जीवन-मूल्य है, अनेकान्त इसी का समर्थन है। समाज में साथ रहते हुए हम एक-दूसरे के विचारों को समझें, अपने को पूर्ण न माने, स्याद्वाद इसी का अनुमोदन करता है। इन सिद्धान्तों की स्वीकृति से जो संस्कृति निर्मित होगी वह विश्व में प्रेम, मैत्री और बंधुता की स्थापना कर सकेगी। पारस्परिक विश्वास इस संस्कृति का आधार-स्तंभ है अतः जैन धर्म प्राचीन काल से जैन इतिहास, कला और संस्कृति १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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