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करते हुए वे कहते हैं कि वर्षधरादि में जो शाश्वतपना है, वह उनका 'अपना आकार न छोडना' ही है । शाश्वतपना होने से उनमें परिणमन होने का निषेध नहीं समझना चाहिए ।"
प्रत्येक भौतिक संरचना में संघटन विघटन की प्रक्रिया प्राकृतिक नियमों के अनुरूप होती रहती है। विपटन पर्याय को प्राप्त परमाणु प्रतिसमय ( जघन्यकाल) दूर होते रह सकते हैं और संघटन पर्याययोग्य दूसरे असंख्य परमाणु उनमें संयुक्त हो सकते हैं । एक दीर्घ अवधि के बाद एक-एक करके उस संस्थान के सारे परमाणु बदल जाते हैं, इसके बावजूद, सामान्य दृष्टि में यह संस्थान ज्यों का त्यों अपरिवर्तित कहा जाता है । संभवतः इसी दृष्टि से जम्बूद्वीपादि को शाश्वत व अशाश्वत - दोनों कहा गया है।
(छ) सर्वार्थसिद्धिकार व राजवातिककार द्वारा भरतादिक्षेत्रगत परिवर्तन के निषेध कर दिये जाने का तात्पर्य इतना हो है कि पृथ्वी एक शाश्वत इकाई है—यह न कभी बनेगी और न नष्ट होगी। जैसे, किसी एक घर में अनेकानेक प्राणियों के मरते जन्मते हुए भी घर ज्यों का त्यों रहता है । उस घर में समय-समय पर परिवर्तन ( मरम्मत, परिष्कार आदि) भी हुए हैं, पर वह घर जितनी जमीन घेरे था, उतनी ही जगह पर है, घटा-बढा नहीं है । इसलिए उस घर को नष्ट नहीं मानते और नहीं उसे दूसरा घर समझ बैठते हैं । उसी तरह, अनेक नगर ऐसे हैं जिनके नाम सदियों से चले आ रहे हैं। यद्यपि उन नगरों में अनेक भौतिक परिवर्तन हो गए हैं, किन्तु उन्हें दूसरे नगर के रूप में नहीं माना जाता । पृथ्वी में भी यत्र-तत्र, कालक्रम से, परिवर्तन होते हुए भी परिमाण में वह ज्यों की त्यों है। दूसरी बात, पृथ्वी आदि में जो परिवर्तन होता है, वह उसके मूलरूप को नष्ट नहीं करता, भले ही प्रभावित अवश्य करता हो । अस्तु, शास्त्रों में जो पृथ्वी का निरूपण है, वह मूल रूप का ही है । कालगत सामयिक वृद्धि ह्रास होने पर भी मूल की अवृद्धि महान को देखते हुए, भरतादि क्षेत्र में अपरिवर्तनीयता का निरूपण पूर्णतः संगत होता है। भरतादि क्षेत्रों में परिवर्तन असम्भव मानने के निरूपण को उसी प्रकार समझना चाहिए जैसा कि आत्मा को अबद्ध व अस्पृष्ट मानना, जबकि कर्मबन्ध की प्रक्रिया का शास्त्रों में विस्तार से निरूपण भी मिलता हो ।
वस्तुतः पृथ्वी में परिवर्तन व अपरिवर्तन ये दो कथन अनेकान्तात्मक प्रवचन (समय) के दो अंश (भाग) है सर्वज्ञ वचन तो उभयनयात्मक है। एक तरफ भरतादिक्षेत्रों के पर्वतादि का आकार परिमाण नियत कर दिए गए हैं, दूसरी तरफ, उत्पादव्ययात्मक पौलिक परिवर्तन का भी शास्त्रों में निरूपण है, साथ ही उत्सर्पिणी आदि काल चक्रानुरूप क्षेत्रीय परिवर्तन का भी संकेत है । व्याख्याता को चाहिए कि वह दोनों प्रवचन कदेशों में परस्पर-बाधकता उद्भावित न करे, बल्कि समन्वय का प्रयास करे, प्रत्यक्षादिप्रतीति से विरोध न हो प्रायः इसी भाव को आचार्य विद्यानन्द ने तस्वाति में व्यक्त किया है।"
(ज) राजवार्तिककार आ० अकलंक जहां भरतादि में क्षेत्रगत वृद्धि ह्रास न होने का निरूपण करते हैं, वह भरतादि क्षेत्र की 'विधता' को लक्ष्य में रख कर है, न कि सामान्य परिवर्तन को लक्ष्य कर ।"
यहाँ यह शंका की जा सकती है कि आगमों में जो सर्वज्ञ तीर्थंकर की वाणी है, इस भावी भौगोलिक परिवर्तनों का संकेत क्यों नहीं किया गया ? आज विज्ञान जिस प्रकार प्रमाण सहित यह बताने में सक्षम है कि इतने वर्षों पूर्व, अमुक रीति से, अमुक-अमुक क्षेत्रीय परिवर्तन हुए हैं, किसी तीर्थंकर ने अपने अतीत या भावी परिवर्तनों का संकेत क्यों नहीं किया ? इसका सीधा-सा समाधान यह
१.
ननु वर्षधरादयः शास्वताः, न ते कदाचिदपि स्वकीयं भावं मुञ्चन्ति तत्कथं पुनरेषां सादिपारिणामिकत्वमुक्तम् ? इति वेदाहवर्षधरादीनां मातत्वं तदाकारमात्रेणेव अवतिष्ठमानत्वात् बोध्यम् (अनुयोगद्वार सूत्र, सू. १५६ पर पू. श्री घासीलाल जी म. कृत टीका) ।
३.
४.
जंबूदीवे......सिय सासए सिय असासए (जंबूदीव प. श्वेता. - ७ / १७७), दव्वट्टियाए सासए, वण्णपज्जवेहि...... असासए, (वहीं, तथा द्र. जीवाजीवाभिगम सू. ३ / २ / ७८ ) ।
"
उपत
तत एवं सूत्रद्वयेन भरत रावतयोस्तदपरभूमिषु च स्थितेर्भेदस्य वृद्धिह्रासयोगायोगाभ्यां विहितस्य कथनं न बाध्यते (त. सू. - ३३२८ पर श्लोकवार्तिक, खण्ड ५ पू. ३४६-४६) ।
५. इमो वृद्धि हासौ, कस्य, भरतैरावतयोः । ननु क्षेत्र व्यवस्थितावधिके, कथं तयोर्वृद्धिहासौ ? अतः उत्तरं पठति तात्स्थ्यात् छन्दसिद्धिररावतयो बिहासयोग (राजवातिक ३।२७) ।
संन धर्म एवं आचार
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