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मध्य लोक के ठीक मध्य में एक लाख योजन विस्तृत, तथा सूर्य-विम्बवत वतु लाकार जम्बूद्वीप है। इस द्वीप को विभाजित करने वाले, पूर्व से पश्चिम तक फैने हुए (लम्बे) छः वर्षधर पर्वत हैं:-(१) हिमवान् (२) महाहिमवान् (३) निषध, (४) नील, (५) रुक्मी, (६)शिखरी । इस प्रकार, जम्बूद्वीप के सात विभाग हो जाते हैं जिनकी वर्ष या 'क्षेत्र' संज्ञा है। ये क्षेत्र हैं-(१)भरतक्षेत्र (२) हैमवत, (३) हरि (४) विदेह, (५) रम्यक, (६) हैरण्यवत, (७) ऐरावत ।'
__मेरु पर्वत विदेह क्षेत्र के मध्य पड़ता है। मे के पूर्व की ओर का विदेह 'पूर्व विदेह', पश्चिम की ओर का 'पश्चिम विदेह', उत्तर की ओर का 'उत्तर कुरु', तथा दक्षिण की ओर का विदेह 'देवकुरु' कहलाता है। भरत, हैमवत तथा हरि क्षेत्र मेरु के दक्षिण की ओर स्थित हैं, तथा रम्यक, हैरण्यवत व ऐरावत क्षेत्र उत्तर की ओर स्थित हैं।
जम्बूद्वीप में ६ महाद्रह हैं, जिनमें पद्मद्रह से गंगा नदी व सिन्धु नदी का उदगम होता है। गंगा नदी दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के मध्य में से होकर प्रवाहित होती हुई, पूर्वाभिमुख हो, चौदह हजार नदियों सहित पूर्वी लवण समुद्र में जा गिरती है “ इसी प्रकार, सिन्धु नदी वैताढ्य पर्वत को भेदती हुई, पश्चिमाभिमुख होती हुई, चौदह हजार नदियों सहित, पश्चिमी लवण समुद्र में जा गिरती
इसी प्रकार, अन्य नदियों (रोहितांसा, रोहिता, हरिकान्ता आदि) का भी उद्गम आगमों में प्रतिपादित किया गया है।" गंगा आदि नदियों में महद्धिक देवताओं का वास है, तथा भरत-ऐरावतादि में पुण्यशाली तीर्थंकर-चक्रवर्ती एवं अन्य उत्तम पुरुष होते हैं, इसलिए जम्बूद्वीप को लवण समुद्र कभी जलमग्न नहीं करता ।
१. स्थानांग-११२४८, त्रिलोकसार-३०८, त०सू० ३।६ पर श्रुतसागरीय वृत्ति, २. त० सू० ३।११, ति० प० ४।६४, लोकप्रकाश-१५।२६१-२६३, स्थानांग-६।८५, ७१५१, जंबूद्वीप (श्वेता०) ६।१२५, बृहत्क्षेत्रसमास
२२,२४, ३. हरिवंश पु० ५।१३-१४, त० सू० ३।१०, लोकप्रकाश, १५२२५८-६० ति०प० ४।६१, स्थानांग-६/८४, ७५०, जंबूद्दीव (श्वेता०)
६।१२५, बृहत्क्षेत्र समास-२२-२३, ४. त० सू० ३।६, लोकप्रकाश-१८।३, हरिवंश पु० ५॥३, २८३, बृहत्क्षेत्रसमास-२५७, ५. लोकप्रकाश-१७।१४-१६, १८०२-३, त० सू० ३।१० पर श्रुतसागरीय वृत्ति, स्थानांग-४।२।३०८, बृहत्क्षेत्रसमास-२५७, ६. त० सू० ३।१४ (दिग० संस्करण), स्थानांग-६।३।८८, जंबूद्दीव प० (श्वेता०) ४।७३, बृहत्क्षेत्रसमास-१६८, १६६-१६७, ७. ति० प० ४।१९५-१६६, २५२, त० सू० ३।२० (दिग० संस्करण), हरिवंश पु० ५।१३२, बृहत्क्षेत्रसमास-२१४, । ति०प० ४।१६६, २१०-२४०, त० सू० ३।२१ (दिग० सं०), लोकप्रकाश-१६।२३६-४६, जंबुद्दीव प० (श्वेता०)४।७४, हरिवंश पु०
५।१३६-१५०, २७५, २७८, स्थानांग-७।५२, बृहत्क्षेत्रसमास-२१५-२२१] ६. त० सू० ३।२२ (दिग० सं०), लोकप्रकाश-१६।२६०-२६३, जंबुद्दीव प० (श्वेता०) ४.७४, ति० प०४।२३७३, ४।२५२-६४,
हरिवंश पु. ५।१५१, स्थानांग-७।५३, बृहत्क्षे त्रसमास-२३३, १०. लोकप्रकाश-१६।२६७-४५५, १६।१५३-१८३, हरिवंश पु० ॥१३३-१३५, तिलोय ५०४।२३८०, २८१०-११, स्थानांग-७।५२-५३,
राजवार्तिक-३।३२, जंबूद्दीव (श्वेता०) ४.७७, ६।१२५, वृहत्क्षे त्रसमास-१७१-१७२, २३३,
११. जीवाजीवा० ३/१७३,
हरिवंश-पुराण के अनुसार ४२ हजार नागकुमार इस लवणसमुद्र की आभ्यन्तर वेला को तथा ७२ हजार नागकुमार बाह्य वेला को धारण (नियमित) कर रहे हैं (हरिवंश पु० ५/४६६) । जीवाजीवाभिगम सूत्र (सू० ३/१५८) तथा बृहत्क्षेत्र समास, (४१७१८) में भी यही भाव व्यक्त किया गया है।
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जैन धर्म एवं आचार
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