SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्याणकों में ज्ञानकल्याणक डॉ० कन्छेदी लाल जैन तीर्थकर तीर्थ का अर्थ घाट होता है। सरोवर या नदी में घाट बने रहते हैं जिनके सहारे मनुष्य इनके बाहर सरलता से मा जा सकता है। उसी प्रकार "तीर्थ करोतीति तीर्थंकरः" अर्थात् जो घाट का काम करे वह तीर्थकर कहलाता है। तीर्थंकर भगवान का मवलम्ब पाकर जीव संसार सिन्धु में न डूबकर, उससे पार हो जाता है। नदी या सरोवर के तीर्थ में तीन विशेषताएं होती हैं। (१) शीतल स्थान होने से ताप शान्त होता है ! (२) शीतल जल से तृष्णा (प्यास) शान्त होती है। (३) पानी के द्वारा कीचड़, मैल आदि की शुद्धि हो जाती है । इसी प्रकार तीर्थकर की वाणी का तीर्थ है, उस वाणी को प्रकट करने के कारण ही वे तीर्थंकर कहे जाते हैं। "तीर्थमागमः अर्थात् आगम ही तीर्थ है"। "सुद धम्मो एत्थ पुण्ण तित्थं" श्रुत और धर्म पुण्यतीर्थ हैं। घाट के समान जिनवाणी की तीर्थता के विषय में मूलाचार (७/७०) में लिखा है दाहोवसमणतण्हाछेदो मलपंकपवहणं चेव । तिहि कारणेहि जुत्तो तम्हा तं दव्वदो तित्थं ॥ (१) जिनवाणी रूपी तीर्थ में प्रवेश करने से भी संसार का सन्ताप शान्त होता है। (२) विषयों की तृष्णा शान्त होती है और (३) आत्मा के द्रव्यकर्म, भावकर्म आदि मैल दूर होते हैं इसलिए जिनवाणी द्रव्य तीर्थ है। जिनेन्द्र के द्वारा धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति होती है अत: वे धर्मतीर्थ कहलाते हैं । रत्नत्रय संयुक्त होने के कारण उन्हें भावतीर्थ भी कहा गया है। त्रिलोकसार में लिखा है कि पुष्पदन्त तीर्थंकर के समय से लेकर वासुपूज्य के समय तक बीच-बीच में धर्म विच्छेद हुआ, इस धर्म विच्छेद के काल में मुनि, आर्यिका, श्रावक. श्राविका का अभाव-सा हो गया था। यद्यपि धर्म का उच्छेद अवसर्पिणी के पंचम काल के अन्त में होता है परन्तु हुंडावसर्पिणी कालदोष के कारण चतुर्थ काल में भी उपर्युक्त सात तीर्थंकरों के तीर्थ काल में भी बीच-बीच में धर्मतीर्थ का विच्छेद हुआ, अन्य तीर्थंकरों के तीर्थकाल में ऐसा नहीं हुआ। विदेह क्षेत्र में तो धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति कभी विच्छिन्न नहीं होती है। वहां तीर्थकर होते रहते हैं । परन्तु कभी भी एक-दूसरे तीर्थंकर का परस्पर दर्शन नहीं होता, अर्थात् एक तीर्थंकर के मुक्त हुए बिना, दूसरा तीर्थकर नहीं होता है। कल्याणक-तीर्थकर भक्ति में तीर्थंकरों को "पंचमहाकल्लायाणसंपण्णाणं" अर्थात् पांच महान कल्याणकों से सम्पन्न कहा गया है। चूंकि संसार पांच प्रकार के दुःखों/अकल्याणकों (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव) की आधारभूमि है, तीर्थंकरों के पुण्य जीवन के श्रवण, मनन तथा गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष रूप पांच कल्याणकों की विधियां देखने से, पांच प्रकार के परावर्तन रूप पांच अकल्याणकों के छूटने का मार्ग मिलता है और अन्ततः यह जीव पंचमगति अर्थात् मोक्ष का पथिक बनता है। तीर्थकारों के पांच कल्याणक, पंच परावर्तन रूप पांच अकल्याणकों के प्रतिपक्षी ही हैं। इन पांचों कल्याणकों के समय इन्द्रादि देव आकर महान पूजा, उत्सव, समारोह करते हैं। इन उत्सवों को पंचकल्याणक कहते हैं। जीवों का सर्वाधिक हित भगवान के ज्ञानकल्याणक के बाद ही होता है, क्योंकि जीवों को धर्म का उपदेश तो उनके पूर्ण ज्ञानी होने के उपरान्त ही मिलता है, इस उपदेश से ही जीव अपने कल्याण का मार्ग प्राप्त करते हैं । यों तो प्रत्येक उत्सर्पिणी के तृतीय और अवसर्पिणी के चतुर्थ काल में भारत ऐरावत क्षेत्र से असंख्यात प्राणी मोक्ष प्राप्त करते हैं परन्तु तीर्थंकर चौबीस ही होते हैं। जिस जीव में लोक-कल्याण की ऐसी विशेष बलवती शुभ भावना उत्पन्न होती है कि इस संसार में मोह की अग्नि में अगणित जीव जल रहे हैं, मैं इन्हें ज्ञानामृत पिलाकर १२४ आचार्यरत्न श्री देशभुषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy