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आहार, भय, मैथुन व परिग्रह- इन चारों के प्रति जो तृष्णा पायी जाती है, उसे संज्ञा कहते हैं। संज्ञा चार प्रकार की होती है-आहार, संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रह संज्ञा। विशिष्ट अन्नादि में संज्ञा अर्थात् वांछाका का होना आहार संज्ञा है । अत्यन्त भय से उत्पन्न भागकर छिपने की इच्छा भय संज्ञा है। मैथुन रूप क्रिया में होने वाली वांछा मैथुन संज्ञा है। धन-धान्यादि को अर्जन करने की जो वांछा होती है उसे परिग्रह संज्ञा कहते हैं। यशोविजय का कहना है कि भय संज्ञा के समान आहार, मैथुन और परिग्रह संज्ञा भी अभिनिवेश है क्योंकि भय के समान आहारादि में भी विद्वानों का अभिनिवेश देखा जाता है। विद्वानों में अभिनिवेश का अभाव केवल उस समय होता है-जब अप्रमत्त दशा में उन्होंने दस संज्ञाओं को रोक दिया हो। संज्ञा मोह रूप अभिनिवेश है। संज्ञा मोह से अभिव्यक्त होने वाला चैतन्य का स्फुरण मात्र ही है। क्लेशों की अवस्थाएं
अविद्यादिपंच क्लेशों की प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न एवं उदार--ये चार अवस्थाएं हैं। ये चारों अवस्थाएं जैन दृष्टि में वर्णित मोहनीय कर्म की सत्ता, उपशम, क्षयोपशम, विरोधी प्रकृति के उदयादि कृत व्यवधान और उदयावस्था के भाव रूप ही हैं।।
प्रसुप्तावस्थाः चित्त में शक्तिमान से स्थित क्लेशों का कार्य करने में असमर्थ होकर बीज रूप में अवस्थित रहना प्रसुप्तावस्था है।' जैनप्रक्रिया के अनुसार अबाधाकाल के पूर्ण न होने के कारण कर्मदलिक का निषेक हो जाने तक की कर्मावस्था को ही प्रसुप्तावस्था कहा गया है।
जैनदर्शनानुसार कर्म बंधते ही अपना फल देना प्रारम्भ नहीं कर देते। कुछ समय तक वे वैसे ही पड़े रहते हैं । कर्म के इस फलहीन अथवा बंध और उदय के अन्तरकाल को आबाधाकाल कहते हैं। आबाधाकाल के व्यतीत हो जाने पर ही बद्ध कर्म अपना फल देना प्रारम्भ करते हैं। आबाधाकाल की स्थिति तक के दो विभाग होते हैं-(१) अवस्थानकाल (२) अनुभव या निषेककाल । कर्मपुद्गलों की एक काल में उदय होने वाले रचना विशेष को निषेक कहा जाता है।
तनुअवस्था :प्रतिपक्ष भावना द्वारा अर्थात् तप एवं स्वाध्यायादि क्रियाओं के अनुष्ठान द्वारा अपहत होकर क्षीण होने वाले क्लेशों की तनु अवस्था कही जाती है। आ० यशोविजयजी के मत में कर्मों के उपशम व क्षयोपशमभाव कर्मों की तनु अवस्था है। आत्मा में की निजशक्ति का कारणवश प्रकट न होना उपशम है,कर्मों का आत्मा से सर्वथा दूर होना क्षय है, क्षय और उपशम दोनों का होना क्षयोपशम है।
विच्छिन्नावस्था : एक क्लेश के प्रबल होने पर दूसरे क्लेश की अभिभूतावस्था ही विच्छिन्नावस्था है। यशोविजय के मत में विरोधीप्रकृति के उदयादि कारणों से किसी कर्म प्रकृति का रुक जाना उसकी विच्छिन्नावस्था है।
उदारावस्था : जिस समय क्लेश अपना व्यापार करने में व्यापृत रहते हैं वह उनकी उदारावस्था कही जाती है। आ० यशोविजय जी ने उदयावलिका के प्राप्त न होने को कर्म की उदारावस्था कहा है।
जैनदर्शनानुसार कर्म की स्वफल प्रदान करने की अवस्था का नाम उदय है। कर्म अपने स्थितिबन्ध के अनुसार उदय में आते हैं एवं अपना फल देकर आत्मा से अलग हो जाते हैं। जिस कर्म की जितनी स्थिति का बंध होता है वह कर्म उतनी ही अवधि तक क्रमश: उदय में आता है । असंख्यात समय समूह की एक आवलि होती है। इस प्रकार उदयावलिका का अर्थ हुआ-असंख्यात समय तक कर्म का उदय में आना । यह उदयावालिका अवस्था ही उदारावस्था के नाम से अभिहित है।
उपयुक्त चार अवस्थाओं के अतिरिक्त एक पांचवीं अवस्था भी होती है जिसे क्षीण अवस्था या दग्धबीजावस्था कहा जाता है।
१. सण्णा चउग्विहा आहार-भय-मेहुणपरिग्गहसण्णा चेदि । खीण सपणा वि अस्थि । (धबला २/१, १/४१३ २) २. विदुषोऽपि भय इलाहारादावप्यभिनिवेशदर्शनात् । केवलं विदुपा(पोऽ)प्रमत्तदशाया दशसंज्ञाविष्कम्भणे न कश्चिदयमभिनिवेशः । संज्ञा च मोहाभिनिवेशः, संज्ञा ___ च मोहाभिव्यक्तं चैतन्यमिति (य० वृ० सू० २/९) ३. चेतसि शक्तिमानप्रतिष्ठानां बीजभावोपगमः (व्या० मा० स०२/४) ४. तेषां प्रसुप्तत्व तज्जनककर्मणो अबाधाकालापरिक्षयेण कर्मनिषेकाभावः (य०७० सू० २/४) ५. प्रतिपक्षभावनोपहता: क्लेशास्तनवो भवन्ति (व्या० भा० स० २/४) ६. तनुत्वमुपशम : क्षयोपशमो वा (य० बु०, सू०२/४) ७. तथा विच्छिद्य विच्छिद्य तेन तेनात्मना पुनः पुनः समुदाचरन्तीति विच्छिन्नाः । (व्या० भा० सू० २/४) ८. विच्छिन्नत्वं प्रतिपक्षप्रकृत्युदयादिनाऽन्तरितत्वम् । (य०७० सू० २/४) १. विषये यो लब्धवृत्ति : स उदारः। (ब्या० भा० सू०२/४) १०. उदारत्वं चोदयावलिकाप्राप्तत्वम् । (य०७• सू०२/४)
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आचार्यरत्न श्री वेशभूषणजी महाराज अभिनन्दन प्रस्थ
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