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जैन धर्म के नैतिक अमोघ अस्त्र
आज देश के सामने एक नहीं, अनेक चुनौतियां मौजूद हैं। सारा देश संक्रमण की स्थिति में है । वह आन्तरिक और बाहरी संकटों से घिरा है। कुछ भौतिक संकट हैं और कुछ आध्यात्मिक । देश की नैतिकता में भारी गिरावट आ रही है । जीवन संघर्ष निरन्तर कठिन से कठिनतर बनता जा रहा है। शोषण, दमन और उत्पीड़न का चक्र भी अपने पूरे वेग से देश की मूक मानवता को निर्मम भाव से पीस रहा है। स्वार्थ और लोभ का मारा मनुष्य अपनी मानवता खोकर दानवता की दिशा में पांव बढ़ाये जा रहा है। सत्ता और सम्पत्ति की चकाचौंध के कारण मनुष्य अपने सत्त्व को खो रहा है।
आज का मानव निराधार एवं निःसहाय स्थिति में है। कोई न कोई आधार पाने के लिए वह व्याकुल है। इस छटपटाहट ने ही उसे नैतिक प्रश्नों के बारे में सोचने को विवश कर दिया है। जिस प्रकार स्वस्थ व्यक्ति की अपेक्षा बीमार को अपनी स्वास्थ्य की चिन्ता अधिक सताती है उसी प्रकार नैतिक संक्रमण काल में नैतिक प्रश्न जितना उभरकर सामने आता है उतना स्थिर अथवा शान्ति काल में नहीं । आजकल प्रतिहिंसा, आपसी भेदभाव और बैर की भावनाएं सर्वत्र सुरसा के मुख की भांति फैलती जा रही है। आज रक्षा केवल धर्म कर सकता है लेकिन धर्म इन दिनों उपेक्षित और ह्रास की अवस्था में है ।
अध्यात्म से महावीर जिस निर्णय पर पहुंचे थे आज के प्रबुद्ध विचारकों को भी उसी पर पहुंचना है। महावीर का धर्म, कल्पना नहीं, जीवन-अनुभव पर आधारित है उनका उपदेश सदा नवीन सा है जिसकी प्रत्येक बूंद मृत जीवन में नया जीवन संचार करने की क्षमता रखती है ।
डॉ० उमा शुक्ल
सामाजिक प्राणी के रूप में व्यक्ति की उन्नति के लिए जैन धर्म में कुछ नैतिक मापदण्ड निर्धारित किये गये हैं। व्यक्ति जब तक अपने समाज का सदस्य है, अपने आत्मिक विकास के साथ-साथ समाज के प्रति भी उसका पूर्ण दायित्व है । यदि वह गृहस्थ जीवन का त्याग करके संन्यास धारण कर ले तो समाज के प्रति उसका दायित्व बहुत कुछ घट जाता है। जैन धर्म के अनुसार गृहस्थ जीवन साधु जीवन का लघु रूप ही है, क्योंकि कोई भी गृहस्थ अपने दायित्वों का निर्वाह करते हुए अपने को मुनिपद के योग्य बना सकता है। महावीर की वाणी में पुरुष दुर्जय संग्राम में दस लाख शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे, उसकी अपेक्षा तो वह अपनी आत्मा पर ही विजय प्राप्त कर ले तो यही श्रेष्ठ है ।" अपने को जीतना और आचरण शुद्ध करना ही जीवन का नैतिक मानदण्ड है । जैन धर्म है 'जिन' भगवान का धर्म । जैन कहते हैं उन्हें जो जिनके अनुयायी हों । 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से । 'जि' माने 'जीतना' 'जिन' माने जीतने वाला । जिन्होंने अपने मन को जीत लिया; अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया वही जैन है। महावीर ने मनुष्य मात्र को सुख की कुंजी बताई थी। उनका मार्ग सामान्य से भिन्न है । वीर तो बाह्य शत्रुओं से झगड़कर विजय प्राप्त करता है पर महावीर तो अपने आन्तरिक शत्रुओं पर विजय पाने में सच्ची विजय मानते हैं। यही सुख प्राप्ति का सच्चा मार्ग है।
प्राचीन काल से हमारे यहां प्रार्थना में यह कहने का रिवाज है
'सर्वेऽत्र सुखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखमाप्नुयात् '
यह शुभ कामना है और आकांक्षा है कि दुनिया का शुभ हो। लेकिन इसके साथ-साथ अगर शुभ करने का काम न हो तो ऐसी सदच्छा का कोई खास मतलब नहीं। श्री अरविन्द ने कहा है- 'सर्वोच्च ज्ञान तक बौद्धिक पहुंच और मन पर उस का आधिपत्य एक अनिवार्य और सहायक साधन है । दीर्घकालीन कठोर साधना करके जो तथ्य तथा सत्य महावीर ने प्राप्त किया वह केवल अपने तक ही सीमित नहीं रखा। जो भी उनके सम्पर्क में आये उन्हें अनुभवों का भण्डार खुले हाथों लुटाया। सभी जैन तीर्थंकर ने स्वयं कृत-कृत्य हो जाने पर भी इन्होंने, एक
आचार्य रत्न भी देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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