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________________ व्यावहारिक जैन प्रतिमानों की आधुनिक प्रागिसंकता डॉ० ल० के० ओङ मेरा जन्म तथा आरम्भिक लालन-पालन मन्दसौर (म० प्र०) में हुआ। कहते हैं कि यह एक प्राचीन नगर है जिसका ऐतिहासिक नाम दशपुर है। जैन मुनियों के प्रवचनों में सुना था कि अपनी तीर्थकरावस्था में भगवान् महावीर का आगमन इस नगर में हुआ था तथा दशार्ण प्रदेश के तत्कालीन नरेश ने भगवान महावीर के समीप दीक्षा अंगीकार की थी। आज भी इस नगर में जैन धर्मावलम्बियों की संख्या काफी है। उन दिनों (और मालूम नहीं कदाचित् आज भी) मन्दसौर नगर साम्प्रदायिक विद्वेष तथा कलह के लिए कुख्यात था। जैनधर्म के विभिन्न सम्प्रदाय एवं उपसम्प्रदायों में व्याप्त क्लेश भी कभी-कभी हिंसात्मक रूप धारण कर लेता था। जब मैं किशोरावस्था तक पहंचा तब तक मेरा मन एक विचित्र प्रकार की अनास्था से भर गया था। जैन मुनियों से सुना था कि जहां-जहां भगवान के चरणारविन्द पडे वह अतिशय क्षेत्र कहलाता है तथा वहां के वातावरण में पवित्रता व्याप्त रहती है। परन्तु मुझे प्रत्यक्ष दिखाई देता था कि आधुनिक मगध, वैशाली, मालव आदि सभी क्षेत्र तो हिंसा, अनाचार, शोषण तथा कलह के केन्द्र बने हुए थे। क्या भगवान महावीर का प्रभाव इन स्थानों से समाप्त हो गया था? कभी-कभी मनस्तरंग मुझे इतिहास के उस युग में ले जाकर खड़ा कर देती थी, जब स्वयं भगवान महावीर कभी राजगृही नगरी के नालन्दी पाडा में, तो कभी श्रावस्ती नगर के गुणसिल्ल उद्यान में, तो कभी वैशाली नगर में और कभी उज्जैनी के चैत्यालय में धर्मोपदेश देते दिखाई देते तथा अनेक राजा-रानियां, श्रेष्ठिगण भगवान का उपदेश सुनकर दीक्षा लेते, श्रावकाचार ग्रहण करते तथा भव्यजीव आत्मकल्याण का मार्ग अपनाते । इसके साथ ही मुझे उस युग के युद्ध तथा पारस्परिक कलह भी याद आते। भगवान महावीर के अनुयायी महाराजा चेटक तथा उन्हीं के जामाता मगध के श्रेणिक नरेश के बीच युद्ध; श्रेणिक और कोणिक दोनों पिता-पुत्र और दोनों महावीर के अनुयायी होते हुए भी एक-दूसरे के जन्मजात शत्रु; तत्कालीन वैशाली और मगध के छोटे से भूखण्ड के अनेक जैन धर्मावलम्बी राजाओं में एक-दूसरे के राज्य को हड़प लेने की वृत्ति। इन सब दुर्वृत्तियों को भगवान महावीर रोक नहीं पाए। उस युग में भी व्यक्ति का निजी आचार तथा सामाजिक आचार अलग-अलग बने रहे। राजा चेटक अपने युद्ध-प्रतिद्वन्द्वी उदयन को एक ओर बन्दी बनाकर कारागृह में डाल सकते हैं. परन्तु सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के उपरान्त अपने बन्दी से क्षमायाचना करते हैं क्योंकि राजा के रूप में युद्धधर्म का आचार भिन्न है, जिस पर निजी जीवन के आदर्शों की छाप पड़ना आवश्यक नहीं है । आचार-सम्बन्धी यह दुविधा भगवान महावीर के समय से लेकर आज तक जैन धर्मावलम्बियों में देखी जा सकती है। उक्त द्विधापूर्ण परिस्थितियों में मेरा मन बारम्बार विद्रोह करता और मैं अपने अत्यन्त धर्मभीरु माता-पिता से प्रश्न करता कि क्या भगवान महावीर के सिद्धान्त शास्त्रों में पढ़ने तक सीमित हैं और क्या इस व्यावहारिक जगत में कभी भी उनका प्रयोग हुआ अथवा उनके व्यवहार में आने की कभी सम्भावना हो भी सकती है? मुझे उनके दैनिक जीवन में पानी का सीमित व्यवहार, बनस्पति का सीमित उपयोग, मुंह पर वस्त्र बांधकर सामायिक के आसन पर बैठना, जानबूझकर किसी भी त्रस जीव को कष्ट न पहुंचाने की वृत्ति, अग्निआरम्भ पर नियन्त्रण, वैरभाव से युक्त विषाक्त प्राणियों की भी रक्षा करने की वृति, समय-समय पर व्रत-उपवास, वाणी में संयम आदि अनेक आचरणों का औचित्य समझ में नहीं आता। मेरे जिज्ञासु किशोर मन को उनके श्रद्धायुक्त आशावादी उत्तर सन्तुष्ट नहीं कर पाते; परन्तु एक दिन उन्होंने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा कि वह समय शीघ्र आने वाला है जब मानव समाज एकान्तिक मतवाद का त्याग करके भगवान महावीर के अनेकान्तिक सिद्धान्त को स्वीकार करेगा तथा इस सृष्टि की नैसर्गिक एवं मानवीय परिस्थितियां "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" के सिद्धान्त को अंगीकार करने के लिए मनुष्य को बाध्य कर देंगी। भविष्यवाणियों में मेरा विश्वास कभी नहीं रहा, परन्तु भविष्य शास्त्र (Futurology) में अवश्य रुचि रही है और इसीलिए आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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