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________________ जैन दर्शन में अहिंसा एक विश्लेषण जैन आचार का समूचा साहित्य अहिंसा की साधना से ओत-प्रोत है । अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन जैन परम्परा में मिलता है उतना शायद ही किसी अन्य परम्परा में हो । अहिंसा जैन आचार की मूलभीति है। इसका प्रत्येक सिद्धान्त अहिंसा की भावना से अनुप्राणित है । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावों का अनुवर्तन, समता व अपरिग्रह तथा संयम और सच्चरित्र का अनुसाधन अहिंसा के प्रधान स्तम्भ हैं । अहिंसा जीवन का शोधक तत्त्व है । अहिंसा का सीधा सम्बन्ध आत्मा से है । वह आत्मा का ही निर्विकार व्यापार है । आत्मा ही उसका साधकतम कारण है । आत्मा ही उसकी सुरम्य जन्म-स्थली है और अहिंसा का संपूर्ण क्रिया-कलाप आत्मा के लिए ही होता है। "अहिंसा परमो धर्मः" अत्यन्त प्राचीन एवं सर्वमान्य सिद्धान्त है । इसका सर्वप्रथम रूप वैदिक परम्परा में देखने को मिलता है। जिसका आरम्भ उपनिषदों से होता है । कोई भी धर्मग्रन्थ हिंसा अथवा मांसाहार की खुली छूट नहीं देता । प्राचीन ग्रन्थों ने यत्र-तत्र कुछ विशेष परिस्थितियों में ही इस हेतु आज्ञा प्रदान की है । इस सम्बन्ध में वैदिक एवं बौद्ध परम्परा, गांधी विचारधारा, इस्लाम तथा ईसाई, जैनेतर धर्म शास्त्रों से कुछ अंश प्रमाण स्वरूप उद्धृत किए जा रहे हैं, जिन्हें बुद्धि-विवेक की कसौटी पर कसकर यह जाना जा सकता है कि जीव हिंसा एवं मांस भक्षण मानव के लिए कहां तक न्यायोचित है । श्री सुनील कुमार जैन जीवन के निर्माण में अहिंसा की महती उपयोगिता विस्मृत करके आज उसे केवल "जीओ और जीने दो" की संकुचित सीमाओं में प्रतिबद्ध कर दिया गया है। इससे जनजीवन में अहिंसा विकृत ही नहीं हुई है, वरन् उसका स्वरूप ही जीवन और जगत से लुप्त-सा हो गया है । इसका फल यह हुआ कि आज व्यक्ति को अपने जीवन के लिए अहिंसा की कोई उपयोगिता नहीं रही । उसका उपयोग केवल दूसरे प्राणी का बचाने का अनधिकृत तथा विफल प्रयास तक ही सीमित रह गया है। हिंसा का प्रतिकार करने के लिए अहिंसा का प्रादुर्भाव हुआ। जैन धर्म में हिंसा-अहिंसा का अत्यन्त विस्तृत एवं सूक्ष्म विवेचन हुआ है। "तत्वार्थ सूत्र" में उमास्वामी ने हिंसा की परिभाषा इस रूप में दी है : प्रमत्तपोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा अर्थात् प्रमादवश जो प्राणघात होता है वही हिंसा है। किसी का प्राणव्यपरोपण ही हिंसा नहीं, मन की सावद्य प्रवृत्ति मात्र ही हिंसा है। इस प्रकार हिंसा में पहले मन का व्यापार होता है फिर वचन और काय का । प्रमाद - वशीभूत व्यक्ति के मन में प्रतिशोध की भावना जाग्रत होती है जो हिंसक उद्देश्य की जननी होती है और तब वह कष्टकारी वचन का प्रयोग करने लगता है तथा इससे भी आगे बढ़ने पर उस जीवन का प्राणघात करता है जिसके प्रति उसके मन में प्रमाद जाग्रत हुआ रहता है । "दशवैकालिक चूर्णि" में कहा है कि मन-वचन और काय के दुरुपयोग से जो प्राणघात होता है वही हिंसा है। इस तरह प्रमाद, वश किसी प्राणी का हनन करना अथवा उसे किसी भी प्रकार का कष्ट पहुंचाना हिंसा कही जाती है । हिंसा का मूल कारण है, प्रमाद अथवा कषाय । इसी कारण हिंसा की उत्पत्ति होती है। इसी के अधीन होकर जीव के मन, वचन, काय में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भाव प्रकट होते हैं। ये ही चार प्रकार के कषाय हैं, जिनके वश में होकर वह स्वयं शुद्धोपयोग रूप भाव-प्राणों का हनन करता है। इन्हीं कषायादिक की तीव्रता के फलस्वरूप उसके द्वारा द्रव्य-प्राणों का भी घात होता है । 'आचारांग सूत्र' में कहा गया है – सभी प्राणियों को, सभी भूतों को, सभी जीवों को तथा सभी सत्त्वों को न तो मारना चाहिए, न अन्य व्यक्ति के द्वारा मरवाना चाहिए, न पीड़ित करना चाहिए और न उनको घात करने की बुद्धि से स्पर्श ही करना चाहिए । यही धर्म १. तत्त्वार्थ सूत्र ७, ६. २. दशवेकालिकचूर्णि जिनदास गणि, प्रथम अध्ययन ३४-४४. जैन धर्म एवं आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only १०३ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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