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________________ करके जब मेत्ता-भावना में समस्त सत्त्वों का अन्तर्भाव कर लिया जाता है तब यह विशिष्ट चित्त-स्थिति उत्पन्न होती है। मेत्ता द्वारा 'अहिंसा' के हेतुभूत चित्त का विलयन भी विमुत्ति-चित्त में हो जाता है (मेत्ता-चेतो-विमुत्ति), और इस प्रकार मैत्री-भावना के विकास द्वारा चित्त की विमुक्ति हो जाती है । कहने का तात्पर्य यही है कि 'अहिंसा' का प्रयोग मेत्ता-चित्त के विकास में अत्यन्त उपादेय है। वस्तुतः यह ऐसा सशक्त माध्यम है जिसके द्वारा साधक मेत्ता-चित्त का विकास करते हुए आध्यात्मिक-यात्रा के अन्तिम पड़ाव तक पहुंच सकता है । 'अहिंसा' के चित्त-विशुद्धि के सन्दर्भ में इस प्रकार की उपादेयता के कारण ही संभवतः अष्टांगिक मार्ग के सम्माकम्मान्त के रूप में दस प्रकार के कुसल कम्मपथों में से प्रथम कम्म-पथ के रूप में, तथा सिगालिक के उपदेश देने के क्रम में अनेक प्रकार से 'अहिंसा' का उपदेश प्रारम्भिक बौद्ध-धर्म के पालि-साहित्य में किया गया है। उपर्युक्त मनोवैज्ञानिक व्याख्यान के अतिरिक्त 'शील' के रूप में भी बौद्ध-विनय में 'अहिंसा' का निर्वचन किया गया है। उपासकों के लिए उपदिष्ट पञ्चशीलों तथा सामणेरों के लिए निर्दिष्ट दस सीलों में 'प्राणातिपात से विरति' को सभी शीलों में स्थूलतम या चुल्लसील होने से सर्वप्रथम रखा गया है। अतिव्यापक आशय वाले 'अहिंसा' तत्त्व के लिए इस सन्दर्भ में “पाणातिपाता बेरमणी", या 'पाणातिपाता पडिविरति' इन दो अभिव्यक्तियों का प्रयोग किया गया है । बौद्ध-चिन्तन में चेतना ही 'कम्म' है, इस आधार पर तथा 'सील' शब्द के विशिष्ट निर्वचन के आधार पर भी बौद्ध-विनिमय में 'विरति' (वेरमणी) या 'पडिविरति' के कृत्यों में बलवती चेतना या प्रगाढ़तम में संकल्प का होना पूर्वावश्यकता माना गया है । "प्राणातिपाता वेरमणी" या "मैं प्राणातिपात से विरत रहूंगा" इस कथन द्वारा विरति-व्रत का शीलत्व तभी प्रतिष्ठापित होता है जबकि व्रत लेने वाला व्यक्ति इस विरति के प्रति सतत जागरूकता आदि सम्यकपेण उपाजित कर लेता है। दूसरे शब्दों में अहिंसा' (प्राणातिपात-विरति ) 'शील' का रूप तभी ग्रहण कर सकती है जबकि इसका ग्रहण एवं आचरण चेतनापूर्वक किया गया हो। अतएव शिशु का प्राणातिपात-विरति-व्यापार या पारिवारिक पृष्ठभूमि आदि के कारण किसी व्यक्ति का मांसाहार आदि न करने का आचरण 'शील' नहीं कहला सकता क्योंकि इन दोनों ही उदाहरणों में प्राणातिपात-विरति चेतनापूर्वक नहीं है। सील' का निर्वचन ठीक इसी आशय में 'विसुद्धिमग्गो' नामक प्रकरण में आचार्य बुद्धघोष द्वारा किया गया है। उन्होंने इसे चरिया के परिपूरण का सुदृढ़ संकल्प, बुद्ध के उपदेशों पर चलने का अनथक प्रयास तथा इस प्रयास द्वारा विमुक्ति की प्राप्ति की अभिनीहार वाली चेतना बतलाया है । इस बलवती चेतना के साथ जब किसी शोभन-कृत्य का आचरण किया जाता है, तभी वह कृत्य 'सील' बनता है। अतः जब इस प्रकार की चेतना के साथ 'प्राणातिपात-विरति' (अहिंसा) का कृत्य हो तभी वह 'सील' कहलाएगा। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बौद्ध-धर्म के अति प्रारम्भिक काल से ही आध्यात्मिक प्रगति का विनियमन शील, समाधि एवं प्रज्ञा की त्रिस्वरूप शिक्षाओं द्वारा किया जाता रहा है । परस्पर में पृथक-पृथक निर्दिष्ट होने पर भी ये एक दूसरे की पूरक हैं। फिर भी 'सील' तो ऐसी आधार-भित्ति ही है जिस पर साधक अपनी आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षा का सुललित प्रासाद प्रतिष्ठापित कर सकता है । अतएव "प्राणातिपात वेरमणी" इस शिक्षा पद की उपर्युक्त पृष्ठभूमि द्वारा यहां 'अहिंसा' का ग्रहण समर्थित है जबकि इसका आचरण उपर्युक्त पद के साथ उदित सुदृढ़ चेतना के फलस्वरूप किया जाता है। अवधारणा एवं वास्तविक प्रयोग में अन्तर 'अहिंसा' का वास्तविक तात्पर्य इस जगत् की यथार्थता का सम्यक् अवगाहन किए बिना ग्रहण किया जाना सम्भव नहीं दिखता। अर्थात् इस विरोधाभास-ग्रस्त जगत् में 'अहिंसा' की अवधारणा का व्यावहारिक प्रयोग कठोरतापूर्वक अशक्य है। हमारा यह जीवन प्रतिपल प्रतिक्षण सहस्रों जीवाणुओं के श्वास-प्रश्वास में आने-जाने की प्रक्रियाओं का ही तो खेल है। यदि 'अहिंसा' की यथार्थ अवधारणा को व्यवहार में उतारना चाहें तो यह 'जीवन' ही सम्भव न रहेगा, अत: 'अहिंसा' के यथार्थ भाव की 'चित्त' द्वारा 'भावना' ही बुद्ध-धर्म में अभीप्सित है । सम्भवतः इसीलिए बुद्ध ने 'कर्म' (कायिक कर्म) के स्तर पर 'अहिंसा के कठोर नियम नहीं बनाए । 'शील' एवं विनय के सन्दर्म से उन्होंने अहिंसा-विषयक जो शिक्षापद उपासकों के लिए उपदिष्ट किया उसमें दो तथ्य अन्तर्भूत हैं (१) अहिंसा का संकल्प, तथा (२) व्यवहार में उसकी परिणति । यदि उपासक ने प्राणातिपात-विरति का संकल्प तो ले लिया परन्तु वास्तविक जीवन में इसका सम्यक्-आचरण न हो सका तो विनय-नियमों के अनुसार उसे शुद्ध चित्त से इसके लिए पटिदेसना करनी होती है। परन्तु जिसने इसका संकल्प ही नहीं लिया यदि उससे १. मज्झिम, ३ पृ० २५१, २. दीघ, ३ पृ. २६६, ३. दीप, ३ पृ० १८१ इत्यादि. ४. विसुद्धिमग्गो, सीलक्खन्ध जैन धर्म एवं माचार १०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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