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श्री रामधारी सिंह 'दिदकर' के अनुसार इस्लामी रहस्यणद (तसव्वुफ) के प्रमुख उन्त्रयक सन्त अबुलअला अलमआरी (१५०७ ई.) भी इन्हीं प्रभाव क्षेत्रों के कारण शाकाहारी था। वह दूध, मधु और चमड़े का प्रयोग नहीं करवा था । पशु-पक्षियों के लिए उसके हृदय में असीम सम्वेरणा एवं अनुकम्पा का भाव था। वह नैतिक नियत्रों का सभल प्रचारव था। वह स्वयं भी ब्रह्मचर्य एवं तपस्थियों के आचरणशास्त्र का पालन करता था।
श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी के कथनानुसार परमअर्हत के विरुद से विभूषित एवं चौदह हजार एक सौ चालीस मन्दिरों का निर्माण कराने वाले सम्राट कुमारपाल ने जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र की मंत्रणा पर राज्य में पश-हत्या पर रोक लगवा दी थी।' डा० मोहनचंद के अनुसार सम्राट, कुमारपाल ने एक अर्धमृत बकरे के कारुणिक दृश्य को देखकर अपने राज्य में किसी भी पशु को चोट पहुँचाने पर रोक लगवा दी थी। उन्होंने ११६० ई० में एक विशेष आज्ञा निकालकर १४ वर्षों के लिए राज्य में पशु-बलि, मुगों अथवा अन्य पशु-पक्षियों की लड़ाई एवं कबूतरों की दौड़ पर प्रतिबंध लगवा दिया। राज्य में कोई भी व्यक्ति, चाहे वह जन्म कितना भी हीन क्यों न हो, वह अपनी जीविका के लिए किसी भी प्रकार के प्राणी की हत्या नहीं कर सकता था। इस प्रकार की राजाज्ञा से प्रभावित होने वाले कसाइयों की जीविका की क्षतिपूर्ति के लिए राज्यकोष से तीन वर्षों के लिए धन देने का भी विशेष प्रबन्ध किया गया जिसमे उनकी हिंसक आदत छट जाए।'
भारत में सर्वधर्म सद्भाव के वास्तविक प्रतिनिधि मुगल सम्राट अकबर की दया तो वास्तव में निस्सीम एवं अनुकरणीय है । अपनी सहज उदारता से 'दीने-इलाही' को प्राणवान् कर धर्मज्ञ अकबर विश्व सभ्यता एवं संस्कृति के उन्नायक महापुरुषों की श्रेणी में विराजमान हो गया है। उसको प्रारम्भिक अवस्था में जैन विद्वान् उपाध्याय पद्मसुन्दर जी और तत्पश्चात् मुनिश्री हरिविजय जी का संसर्ग मिल गया था । उपरोक्त संसर्गों और गहन चिन्तन ने अकबर को वैचारिक रूप में अनेकान्तवादी बना दिया था। जनश्रुतियों में तो अकबर पर जैन-सम्राट होने का भी आरोप लगाया जाता है। श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' ने एक रोचक लोककथा का उल्लेख करते हुए 'संस्कृति के चार अध्याय' में यह जानकारी दी है कि नरहरि नामक हिन्दी-कवि ने गौओं की ओर से निम्नलिखित छप्पय अकबर को सुनाया था:
अरिहुं दन्त तृन धरै ताहि मारत न सबल कोइ । हम सन्तत तुन चरहिं बचन उच्चरहिं दीन होइ। अमृत छोर नित स्रवहिं बच्छ महि थम्भन जावहिं । हिन्दुहि मधुर न देहि कटक तुरूकहिं न पियावहिं। कह कवि 'नरहरि' अकबर सुनो, बिनवत गउ जोरे करन । अपराध कौन मोहि मारियत, मुयहु चाम सेवहिं चरन ।
गौओं की प्रार्थना से द्रवित होकर सम्राट अकबर ने अपने राज्य के बहुसंख्यक नागरिकों की धार्मिक मान्यता को समादर देकर करुणा के दर्शन को मुखरित किया था। श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' के अनुसार धर्म अकबर की राजनीति का साधन नहीं था, प्रत्युत् यह उसकी आत्मा को अनुभूति थी। अबुल फजल और बदायूनी के विवरणों से मालूम होता है कि अकबर सूफियों की तरह कभी-कभी समाधि में आ जाता था और कभी-कभी सहज ज्ञान के द्वारा वह मूल सत्य के आमने-सामने भी पहुंच जाता था। एक बार वह शिकार में गया । उस दिन ऐसा हुआ कि घेरे में बहुत से जानवर एक साथ पड़ गए और वे सब मार डाले गए। अकबर हिंसा के इस दृश्य को सह नहीं सका। उसके अंग-अंग कांपने लगे और तुरन्त उसे एक प्रकार की समाधि हो आई। इस समाधि से उठते ही उसने आज्ञा निकाली कि शिकार करना बंद किया जाए। फिर उसने भिखमंगों को भीख दी, अपना माथा मुंडवाया और धार्मिक भावना के इस जागरण की स्मति में एक भवन का शिलान्यास किया। जंगल के जीवों ने अपनी वाणीविहीन वाणी में उसे धर्म का रहस्य
१. K. M. Munshi-'The Glory That Was Gurjaradesa'. Part III. The Imperial Gurjaras. Bom bay, 1944
p. 191-192. २. Dr. Mohan Chand,-Syainika Sastram (The art of hunting in ancient India) Intro. pp.23. जैन धर्म एवं आचार
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