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________________ में हिंसा का बोलबाला था । स्वर्ग-प्राप्ति के लिए यज्ञशालाओं में मूक प्राणियों की बलि, व्यक्ति-व्यक्ति में धर्म के नाम पर भेद की दष्टि, पांडित्य-प्रदर्शन और आभिजात्य हितों की संरक्षा के लिए लोकभाषाओं की उपेक्षा, असमर्थ एवं साधनहीन परुष एवं नारी की समाजव्यापी विवशता एवं दासता इत्यादि हिंसा के विकराल रूपों की छवियाँ ही तो थीं। अत: इस प्रकार के वातावरण में हिंसा का मानसिक रूप से विरोध करने वाले स्वर उठने स्वाभाविक थे। यह उस काल के लिए गौरव का विषय है कि तत्कालीन समाज में चेतना का मन्त्र फूंकने के लिए ऐसे महाप्राण धर्मपुरुषों का जन्म हुआ जो ईश्वर के अस्तित्व को न मानकर कर्म-फल के महत्त्व को स्वीकार करते थे। मानव-समाज की उन्नति के लिए वास्तव में एक ऐसे आचारशास्त्र की आवश्यकता होती है जो अशुभ कर्म का अशुभ, शुभ कर्म का शुभ, और व्यामिश्र का व्यामिश्र फल अथवा परिणाम को स्वीकार करता हो । अतः उस समाज में करुणा के स्वस्थ दर्शन का विकसित होना समय की अनिवार्यता थी। बौद्धधर्म में सप्तविध अनुत्तर-पूजा द्वारा बोधिचित्त की महान् उपलब्धि के उपरान्त पूजक की इच्छा होती है कि वह समस्त प्राणियों के सर्व दु:खों का प्रशमन करने में सहायक हो। साधक की भक्तिपूर्वक प्रार्थना के स्वर इस प्रकार हैं, "हे भगवन् ! जो व्याधि से पीड़ित हैं, उनके लिए मैं उस समय तक औषधि, चिकित्सक और परिचारक होऊँ, जबतक व्याधि की निवृत्ति न हो, मैं क्षधा और पिपासा की व्यथा का अन्न-जल की वर्षा से निवारण करू, और दुभिक्षान्तर कल्प में जब अन्नपान के अभाव से प्राणियों का एक दूसरे का मांस व अस्थि-भक्षण ही आहार हो, उस समय में उनके लिए पान-भोजन बनू । दरिद्र लोगों का में अक्षय धन होऊँ। जिस पदार्थ की वह अभिलाषा करें, उसी पदार्थ को लेकर मैं उनके सम्मुख उपस्थित होऊ ।" करुणा से मानवमन को द्रवित कर देने वाली इसी प्रकार की अनुभूतियों से अहिंसा के दर्शन का विकास हुआ। इस विकास की चरम परिणति जैन धर्म में हुई। श्री रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में, "जैनों को अहिंसा बिलकुल निस्सीम है। स्वयं हिंसा करना, दूसरों से हिंसा करवाना या अन्य किसी भी तरह से हिंसा के काम में योग देना, जैन धर्म में सब की मनाही है । और विशेषता यह है कि जैन सम्प्रदाय केवल शारीरिक अहिंसा को ही महत्त्व नहीं देता, प्रत्युत् उसके दर्शन में बौद्धिक अहिंसा का भी महत्त्व है। जैन महात्मा और चिन्तक, सच्चे अर्थों में मनसा, वाचा, कर्मणा अहिंसा का पालन करना चाहते थे। अतएव उन्होंने अपने दर्शन को स्याद्वादी अथवा अनेकान्तवादी बना दिया। जैन शास्त्रकारों ने पृथ्वो, अग्नि, जल एवं वायु में भी जीव तत्त्व की परिकल्पना की और अपनी सदय दष्टि के कारण इस प्रकार के प्रावधान किए जिससे उनका अवरोध न हो।"२ श्री एच० जी० रॉलिनसन ने जैन आचारांग सत्र में पृथ्वी, अग्नि, जल एवं वाय कायिक के जीवों में जीवन के अस्तित्व के दर्शन किए।' अत: विश्वव्यापी जीवों की रक्षा के लिए जैनाचार्यों के मन में कोमल अनुभूतियों का होना आवश्यक था। इसीलिए उन्होंने समस्त जीवों की रक्षा के लिए मंगल उपदेश दिया है। श्री अतीन्द्रनाथ बोस ने सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् जैकोबी को आधार मानकर यह निष्कर्ष निकाला है कि सर्वप्रथम भगवान महावीर स्वामी ने ही पेड़-पौधों एवं पशु-पक्षियों के जीवन की सुरक्षा के लिए विशेष आज्ञा प्रसारित की थी। भगवान् बुद्ध एवं भगवान् महावीर स्वामी के उपदेशों से प्रभावित होकर तत्कालीन जगत् में एक वैचारिक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ और समाज में हिंसापरक अनुष्ठानों एवं मांसाहार को बुरी निगाह से देखा जाने लगा। भारतीय आयुर्वेद एवं चिकित्साशास्त्र के विकास ने धर्मानुरागी समाज को मनुष्य-जाति के साथ-साथ पशु-पक्षियों के लिए भी औषधालय एवं अस्पतालों को खोलने की प्रेरणा दी। पं. जवाहरलाल नेहरू के अनुसार "ईसा से कब्ल की तीसरी या चौथी सदी में जानवरों के अस्पताल भी थे। वह शायद जैनियों और बौद्धों के मजहबों के असर से बने थे, जिनमें कि अहिंसा पर जोर दिया गया है।"५ बौद्ध एवं जैन धर्म से प्रेरणा ग्रहण कर प्रियदर्शी सम्राट अशोक ने इस प्रकार की गतिविधियों को राजकीय संरक्षण प्रदान किया। धर्मप्रिय सम्राट अशोक ने अपने एक आदेश में कहा है : - "अगर कोई उनके साथ बुराई करता है, तो उसे भी प्रियदर्शी सम्राट् जहां तक होगा सहन करेंगे। अपने राज्य के वन के निवासियों पर भी प्रियदर्शी सम्राट की कृपा-दृष्टि है, और वह चाहते हैं कि ये लोग ठीक विचार वाले बनें, क्योंकि अगर ऐसा वे न करें तो प्रियदर्शी सम्राट् को पश्चात्ताप होगा। क्योंकि परम पवित्र महाराज चाहते हैं कि जीवधारी मात्र की रक्षा हो, और उन्हें आत्म-संयम, मन की शान्ति और आनन्द प्राप्त हो।" १. प्राचार्य नरेन्द्र देव, 'बौद्ध-धर्म दर्शन', पृ० १८८ २. श्री रामधारी सिंह दिनकर, 'संस्कृति के चार अध्याय', पु. ११३ ३. H.G. Rawlinson-India-a short cultural History'. London, 1937. P.43. ४. Atindra Nath Bose--'Social and Rural Economy in Northern India, 600 B.C. to 209 A. D.' Calcutta, 1942. P. 84. ५. पं. जवाहरलाल नेहरू, 'हिन्दुस्तान की कहानी,' पृ० १३२ ६. पं. जवाहरलाल नेहरू, 'हिन्दुस्तान की कहानी, पृ० १५४ जैन धर्म एवं आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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