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________________ हैं। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि महत्वाकांक्षा के बिना सभ्यता आगे बढ़ ही नहीं सकती है और उसकी संतुष्टि के लिए प्रतिस्पर्धा की सक्रियता आवश्यक है। प्रतिस्पर्धा में सफलता के लिए अपने प्रतिस्पधियों का किसी न किसी प्रकार से दमन करना अनिवार्य है। दमन में परपीड़न होगा ही। इस प्रकार मनुष्य के जीवन से हिंसा के भाव को हटाना एक मधुर कल्पनामात्र है। मानव धर्म के रूप में अहिंसा पाश्चात्य विकासवादियों का यह तर्क आपाततः प्रभावोत्पादक लगता है किन्तु इसका खोखलापन स्वयं इसका ही विपर्यस्त आधार-वाक्य प्रकट कर देता है । वदि वन्य नियम (Rule of jungle) को सभ्य जीवन का भी मानक माना जाय तो सभ्यता का रूप ही विकृत हो जाएगा। मात्स्यन्याय' के द्वारा मानव जीवन की नीति को निर्धारित करने पर सभ्यता और संस्कृति की गति ऊर्ध्वमुख न होकर अधोमुख हो जाएगी। डार्विन के पक्षपाती पशु एवं मनुष्य में केवल परिमाणात्मक भेद मानने हैं किन्तु भारतीय विचार उनमें गुणात्मक भिन्नता देखता है । अरस्तु के अनुसार पशु के साथ मनुष्य की भिन्नता इसलिए है कि मनुष्य में बुद्धि है अर्थात् उसमें युक्तिशीलता का गुण है- Man is a rational animal यह गुण पशु में नहीं माना गया है। दकात तो पशु को मात्र सजीव मशीन मानते हैं। किन्तु भारतीय विचार के अनुसार तारतम्यजन्य भिन्नता भले ही हों किन्तु पशुओं में भी बुद्धि है अवश्य-बुद्धिरस्ति समस्तस्य जन्तोविषयगोचरे (मार्कण्डेय पुराण)। वास्तधिक भेद तो इस विषय को लेकर है कि पशुओं में विवेकजन्य कर्त्तव्य की भावना नहीं रहती जो मनुष्यों में होती है : आहारनिदाभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण होनाः पशुभिः समानाः । (हितोपदेश) इस प्रसंग में कर्त्तव्य शब्द का अर्थ 'मानवीय कर्तव्य' समझना चाहिए । जो मानवीय कर्तव्य है वही धर्म है । चूकि कुछ ऐसे कर्तव्य होते हैं जिनके द्वारा समग्र जीवन का लक्ष्य सिद्ध होता है इसलिए उनका एक नाम 'धर्म' है (यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः)। ये कर्त्तव्य ऐसे हैं जिनका धारण अत्यावश्यक है (धारणाद्धर्ममित्याहुः) । यदि उनका धारण न हो तो समाज में अव्यवस्था छा जाएगी धर्मो धारयति प्रजाः), और सभ्यता विशृखलित हो जाएगी। जिसे हम संस्कृति कहते हैं, उसकी प्राप्ति असंभव हो जाएगी। संस्कृति किसी मनुष्य-समाज का होती है, पशु-समुदाय की नहीं। सभ्यता के पथ पर बढ़ते हुए मानव समाज ने अब तक जिन मूल्यों का स्थापन किया है वे ही उसकी संस्कृति की उपलब्धियाँ हैं। पशु की ऐसी कोई उपलब्धि नहीं होती है। पशु साधारणतया दैहिक आवश्यकताओं से प्रेरित होकर क्रियाशील होना है किन्तु मनुष्य की क्रियाशीलता का प्रेरक घटक बौद्धिक एवं आध्यात्मिक तत्वों के प्रति उसकी उन्मखता है। बाइबिल का निम्नलिखित कथन इसी आशय को व्यक्त करता है : Blessed are those who feel their spiritual need, for the kingdom of Heaven belongs to them. साधारण प्राणी की भूख-प्यास अन्न-जल से शान्त हो जाती है किन्तु इन दैहिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त मनुष्य की एक पृथक बुभुक्षा और कृपा होती है जो सुभद्र तत्त्वों की उपलब्धि से ही शमित हो सकती है Blessed are those who are hungry and thirsty for uprightness, for they will be satisfied ! (Bible, The New Testament.) - इतनी बड़ी भिन्नता की खाई को देखते हुए भी यदि हम मनुष्य को एक साधारण निम्नवर्गीय प्राणी के समकक्ष रख कर प्राणीमात्र को एक ही नियम में आबद्ध करने का प्रयास करें तो हमारा निष्कर्ष अवश्य ही भ्रान्तिग्रस्त होगा। इसी प्रकार की भ्रान्तिग्रस्तता का एक नमूना उपयुक्त विचार है जिसमें हिसावृत्ति को साधारण जीवन निर्वाह के लिए भी अनिवार्य माना गया है। इसमें कोई मतान्तर नहीं है कि मनुष्य एक प्राणी है। परन्तु वह ऐसा निम्नस्तर का प्राणो नहीं है जिसमें उचित-अनुचित के ज्ञान की सम्भावना नहीं है । जिस प्राणी में ऐसा ज्ञान नहीं रहता है उसके किसी कर्म पर उचित-अनुचित का निर्णय भी नहीं दिया जा सकता है। बच्चे में उक्त प्रकार के ज्ञान के अभाव के कारण यदि प्रचलित अर्थ में उससे कोई अपकर्म भी किया जाता तो उस पर न तो पूण्यपाप का निर्णय लिया जाता है और न वह किमी शास्त्रदण्ड अथवा राजदण्ड का ही भागी समझा जाता है। उसी प्रकार बिच्छ यदि किसी को डंक मार देता तो उसका भी कर्म अच्छे बुरे की परिधि से बाहर ही गिना जाता है क्योंकि वैसा तो उसका स्वभाव ही है। ८६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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