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________________ की, रीति-रिवाजों की कुछ कद्र नहीं रह जाती। रात में खाओ' यह एटीकेट्स, मैनर्स नहीं, तो रात में खाने का नाम भी नहीं लेना। यह शिष्टता का व्यवहार है । यहीं असली एटीकेट्स मैनर्स है। अब वह आचरण से इसकी शिक्षा देने लगता है। इसका नतीजा यह होने लगता है,रात में घर आने वाला मेहमान दिन में ही खाना खाने उसके घर में पहुँचता है। क्योंकि उसे अब मालूम हुआ है कि उनके घर सूर्यास्त के पहले खाना नहीं खाऊंगा तो रात खाली पेट जायेगी। यह कृति ही 'रात्रि भोजन-त्याग' का अधिक प्रसार-प्रचार करेगी। पहली प्रतिमा से ही वह खुद रात्रि-भोजन नहीं करता था। अब मन-वचन-काय, कृत-कारित तथा अनुमोदना से भी रात्रि भोजनत्याग का अनुमोदन करता है। हरी पत्ता सब्जी न खाने से जीवन-यापन नहीं होता ऐसा नहीं, उसी तरह रात में भोजन न करने से जीवन-यापन होता नहीं, ऐसा भी नहीं। किन्तु अनावश्यक जो प्रयोग-उपयोग से छुटकारा हो जाता है, यही अनर्थ दंड व्रत का पालन है। ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा---आत्मस्थिरता ही एकमात्र अहिंसा है। उसके अलावा पर-चितन को आत्मस्वभाव के विरुद्ध मानने वाला आत्मदर्शी अपनी भूल जानकर भी स्वस्त्री से नाता तोड़ नहीं पाया था। लेकिन अब वह सफलता भी प्राप्त कर चुका है। अपने अब्रह्मरूप कृति पर विजयी हो चुका है । हजार चितनों का उतना मूल्य नहीं, जितना इस एक कृति का ! आमरण उस नीच कृति से वह अपने को बचा रहा है। अचेतन स्त्री, मनुष्यिणी, तिर्यंच-देवी-इनका मन, वचन और काय से तथा कृत-कारित-अनुमोदना से त्याग कर चुका है। यही सबसे अधिक हिंसा की कृति थी। यही आत्मा का सबसे अधिक अध:पतन था। जिसकी अत्यंत अहिंसक सार्वकल्याण की सात्त्विक कृति हो गई, वह कभी भी दूसरे जीव को अब विवाह की सलाह नहीं दे सकता। जो खुद नरक से बचना चाहता है, वह अपने प्रिय जनों को नरक का द्वार कभी नहीं दिखा सकता। यह आत्म-सूर्य के फूटती हुई प्रकाशित किरणों का दर्शन है । यह कथन करने की बात नहीं,अनुभव की बात है। जहां कथन है वहां अनुभव नहीं; जहां अनुभव है वहां कथन नहीं । शब्दों से सत्य का दर्शन नहीं हो सकता। जहां शब्द छूट जाते हैं वहां सत्य की उपलब्धि होती है। जहां विचार, आशा, आकांक्षा,राग-द्वेष छूट जाते हैं, वहां जो रह जाता है वही मात्र सत्य है। वहीं परम शुद्ध आत्मा है । इसलिए सत्य कहा नहीं जा सकता, मात्र अनुभवन किया जा सकता है। इस सत्य की जिसे उपलब्धि हो गई है वह, अन्य सभी इस सत्य को प्राप्त करें-इसी सद्भावना का इच्छुक रह जाता है। इसलिए अपने पुत्र-पौत्र भी इस अनाकुल-निराकुल सुख को प्राप्त करें,वे भी जगत् के झूठे कामकाजों से बचें, सदाचार-सम्पन्न, पवित्र चारित्र्य-सम्पन्न हों, इसलिए विवाह में मात्र हिंसा के अलावा और सुख नहीं—ऐसा कहता भी है, लेकिन जवानी का नशा सुनता नहीं। पुत्र-पौत्र मानते नहीं तब अपनी जिम्मेदारी जानकर सिर्फ उनका विवाह करता है । अगर घर में वह जिम्मेदारी संभालने वाले हों तो उससे भी छुट्टी ली जाती है। ८. आरम्भत्यागप्रतिमा—लेना-देना करना, व्यापार उद्यम चलाना, घर का कारोबार देखना, इन विभाव-क्रियाओं से इतना विरक्त होता है कि संरंभ, समारंभ, आरंभ-रूप रसोई, उदर-निर्वाह का साधन, दुकानदारी, खेती आदि भी छोड़ देता है । खंडणि, पेशणी, चल्ली, उदकुम्भी, प्रमार्जनी-ये गृहकृत्य तो हिंसाकांड से प्रतीत होने लगते हैं। इन कृत्यों में संग्रामभूमि का दर्शन होने लगता है। संग्रामभूमि का जो विदारक, बीभत्स, हिंसाजनक स्वरूप है, उसकी तुलना में पंचसूना से उदर-निर्वाह की क्रिया किसी भी अपेक्षा से कम विदारक, शौर्यपूर्ण, निर्घ ण नहीं है। वहां पंचेन्द्रियों का हिंसाकांड है। ‘जीवो मंगलम्' भावना का, 'जीयो और जीनो दो' भावना का, सहृदयता का, इससे बढ़कर और क्या सबूत हो सकता है ? वह आरंभ-त्याग वाला खाने-पीने रूप परावलंबन से और उसके लिए किये जाने वाली क्रिया से इतना ऊब जाता है, इतनी निर्ममत्व भावना इस प्रकार फूटकर बाहर निकलती है कि जो भी हो ! अब यही हिंसात्मक क्रिया आमरण न होगी, फिर इसका मूल्य कितना भी क्यों न चुकाना पड़े ! यह विचार कर प्रतिज्ञाबद्ध होता है। साधक को विभाव क्रियाओं की कितनी थकान आयी है, इसका अनुमान किया जा सकता है। अब शुद्ध परमात्मा की प्रतिमा साकार होने जा रही होती है । ६. परिग्रह-त्याग प्रतिमा-इतने निर्मल परिणामों का नतीजा स्पष्ट है। अब जो पूर्व का अनिच्छा से रखा हुआ, जो परिग्रह था उसको भी अधिक उच्च स्तर पर घटाया जाता है । सिवाय ओढ़ने के वस्त्र, सभी महल, मकान, दुकान के हक छोड़ देता है। पुत्र-स्त्री एक धर्मशाला में ठहरे प्रवासी से अधिक मूल्य नहीं पाते । यहाँ 'भोगोपभोग परिमाण' यह शिक्षाव्रत प्रतिमा-रूप बन गया है। यहां नवीं कक्षा उत्तीर्ण होने का स्टैंडर्ड प्राप्त हो चुका है। १०. अनुमोदना प्रतिमा-'जल में भिन्न कमल' जैसी यह स्थिति है, अतः घर में रहते हुए भी घर के कारोबार में इतनी उदासीनता है कि मन, वचन, काय और कृत-कारित-अनुमोदना से भी अनुमति नहीं देता। ये सब बेकार की बातें हैं ! जिसे अपना चिंतामुक्त रूप मिला वह क्यों चितायुक्त हो जाय ! आत्मस्थिरता की बढ़ती श्रद्धा का ही इस विरक्ति के दर्शन में योगदान है। ६४ आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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