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________________ जैन शासन पं० नरेन्द्रकुमार न्यायतीर्थ जीयात् जैन शासनमनादिनिधनं सुवन्धमनवद्यम् । यदपि च कुमतारातीन्, अदयं धूमध्वजोपमं दहति ॥ काम क्रोधादिषड्रिपून जयति इति जिनः । निजं वेत्ति इति जिनः । जो काम-क्रोध-आदि षट् रिपुओं को जीतता है उसे 'जिन' कहते हैं । अथवा जो निज शुद्ध कारण परमात्मा को जानता है, वेदन करता है, अनुभवन करता है, उसे जिन कहते हैं। बिना आत्मज्ञ हुए सर्वज्ञ नहीं बन सकता। संपूर्ण जगत् (विश्व) आत्म और अनात्म-स्वरूप है। जिसने आत्मा और अनात्मा का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लिया, वही अनात्मा को त्याग कर आत्मा में अविचल-स्थिर हो सकता है। आत्मा में स्थिर होने वाला आत्मा ही परमात्मा कहलाता है। परमात्मा या सिद्ध बनना नहीं पड़ता । स्वत:सिद्ध भगवान् आत्मा को जानकर उसमें लीन होना, आत्मा का आत्म-रूप रहना इसी को सिद्ध-परमात्मा कहते हैं । कर्म के अभाव से आत्मा परमात्मा बनता है, यह कहना व्यवहारनय कथन है-उपचार-कथन है। मल के अभाव से दर्पण स्वच्छ हुआ, ऐसा कहना लोक-व्यवहार है। वास्तव में मल के अभाव से दर्पण में स्वच्छता बाद में कहीं बाहर से आती है, ऐसा नहीं है । स्वच्छता, मल के सद्भाव में भी दर्पण में ही थी। स्वच्छता दर्पण का स्वभाव है। मल के सद्भाव में वह अप्रकट था, वही मल के अभाव में प्रकट हुआ। मल के सद्भाव ने दर्पण की स्वच्छता नष्ट नहीं की थी तथा मल के अभाव में दर्पण में स्वच्छता बाद में कहीं बाहर से लायी, यह बात नहीं है। उसी प्रकार कर्म के अभाव से आत्मा सिद्ध परमात्मा होता है, ऐसा व्यवहारशास्त्र में व्यवहारनय से कथन किया जाता है। परंतु कर्म के अभाव से आत्मा में परमात्मपना या सिद्धपना बाद में कहीं बाहर से आता है—ऐसा नहीं है। जितना मूल स्वतः सिद्ध बन-बना हुआ आत्मा है उतना ही शेष रहना, जो अनात्मा-रूप उपाधि थी, उसका अभाव होना-इसी को सिद्ध-परमात्मा कहते हैं । उपाधि के सद्भाव में भी मूल स्वतः सिद्ध बन-बना हुआ जितना आत्मा है उतना ही था । उपाधि के अभाव में भी उतना ही शेष रहा। संसार अवस्था = (आत्मा+उपाधि) ___ = (संसार)-(उपाधि) = (आत्मा+उपाधि)-उपाधि मोक्ष = आत्मा इस बीजगणित के समीकरण सिद्धान्त से मूल स्वतःसिद्ध आत्मा ही सिद्ध परमात्मा व्यवहार में कहा जाता है। संसार में जो १४ गुणस्थान रूप, १४ मार्गणारूप, १४ जीव समास रूप उपाधि है वह सब अचेतन-अनात्मा है । इन उपाधियों से अत्यन्त भिन्न-पृथक्-विभक्त मेरा स्वतःसिद्ध, शुद्ध-बुद्ध, त्रिकाल-ध्रुव ऐसा जो कारणपरमात्मा है, वही मैं हूं, वही मुझे उपादेय, आश्रय करने योग्य है, वही मंगल है, वही लोकोत्तम है, वही शरण्य है । शेष सब अनात्मा है, हेय है, आश्रय करने योग्य नहीं है, शरण्य नहीं है। इस प्रकार स्व-पर का भेद-विज्ञान होने पर, शुद्ध उपयोग द्वारा अपने शुद्ध आत्मा का ही चेतन-वेदन-अनुभवन करना—यही आत्मा का अन्तिम ध्येय है। यही शाश्वत सुख का एकमेव मार्ग है, उपाय है। यही मार्ग जिन्होंने स्वयं अपनाया, और अपने स्वानुभवपूर्ण शाश्वत सुख के मार्ग का (practical) प्रत्यक्ष कृति-वृत्ति-आचरण द्वारा ध्यानस्थ होकर मूकवृत्ति से जगत् के सब प्राणिमात्र को बतलाया-मार्गदर्शन किया, उन्हीं को जैन शासन में 'जिन' कहा गया है। वीतराग सर्वज्ञ जिन भगवान् द्वाग बतलाया हुआ जो शासन, तत्त्व का यथार्थ उपदेश है, उसी को 'जैन शासन' कहते हैं। मोक्ष आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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