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________________ मूलाचार - प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान में भेद दिखलाते हुए वृत्ति में यह स्पष्ट किया गया है कि अतीत काल में उत्पन्न दोषों का प्रतीकार करना, यह प्रतिक्रमण का स्वरूप है, तथा आगे भविष्यत् और वर्तमान में उत्पन्न होने वाले द्रव्यादिविषयक दोषों का परिहार करना, इसे प्रत्याख्यान कहा जाता है । इसके अतिरिक्त प्रत्याख्यान में तप के लिए निर्दोष द्रव्यादि का भी परित्याग किया जाता है, किन्तु प्रतिक्रमण में दोषों का ही प्रतीकार किया जाता है, यह भी उन दोनों में विशेषता है। प्रत्याख्यान करनेवाला किन विशेषताओं से युक्त होता है और प्रत्याख्यान का स्वरूप क्या है, तथा प्रत्याख्यान के योग्य सचित्तअचित्त आदि द्रव्य कैसा होता है इसका विस्तार से विचार मूलाचार में 'प्रत्याख्यान' आवश्यक के प्रकरण में किया गया है। कायोत्सर्ग- देवसिक और रात्रिक आदि नियमों में आगमविहित कालप्रमाण से उस उस काल में जिन गुणों का स्मरण करते हुए जो कायोत्सर्ग किया जाता है—शरीर से ममत्व को छोड़ा जाता है - इसे कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग कहते हैं । ' मूलाचार के षडावश्यक अधिकार में इस कायोत्सर्ग के विषयों पर विस्तार से विचार किया गया है। " यहां संक्षेप में उसके विषय में प्रकाश डाला जाता है कायोत्सर्ग में अधिष्ठित होते समय दोनों बाहुओं को लम्बा करके उभय पांवों के मध्य में चार अंगुलों का अन्तर रखते हुए समपाद स्वरूप से स्थित होना चाहिए, तथा हाथ पांव सिर और आंखों आदि शरीर के सभी अनाथों को स्थिर रखना चाहिए। विशु कायोत्सर्ग का यही लक्षण है । जो मुमुक्षु विशुद्ध आत्मा निद्रा पर विजय प्राप्त कर चुका है, सूत्र (परमागम ) और अर्थ में निपुण है, परिणामों से शुद्ध है तथा बल-वीर्य से सहित है—ऐसा भव्य जीव कायोत्सर्ग में अधिष्ठित होता है। कायोत्सर्ग में अधिष्ठित होने वाला आत्म- हितैषी यह विचार करता है कि कायोत्सर्ग मोक्षमार्ग में प्रवृत्त करने वाला, व घातियाकर्मजनित दोषों का विनाशक है। इसलिए मैं उसमें अधिष्ठित होने की इच्छा करता हूं। 'जिनदेव' ने स्वयं उसका आराधन किया है व उपदेश भी दिया है। कायोत्सर्ग में अधिष्ठित होता हुआ वह विचार करता है कि एक पद के आश्रित होकर भी मैंने राग-द्वेष के वशीभूत होकर जो दोष उत्पन्न किये हैं, चार कषायों के वश जो गुप्तियों व व्रतों का उल्लंघन किया है, छह काय के जीवों का विराधन किया है, सात भय व आठ मद के आश्रय से जो सम्यक्त्व को दूषित किया है, तथा ब्रह्मचर्य धर्म के विषय में जो प्रमाद किया है, उस सब के द्वारा जो कर्म उपार्जित किया है, उसके विनाशार्थ में कायोत्सर्ग में स्थित होता है देव, मनुष्य और तिच इनके द्वारा जो उपसर्ग किये गए हैं उनको में कायोत्सर्ग में स्थित होता हुआ सहन करता हूं। इसका अभिप्राय यह है कि यदि कायोत्सर्ग में स्थित रहते हुए उपसर्ग आते हैं तो उन्हें सहन करे, तथा उपसर्गों के आने पर यथा-योग्य कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग का उत्कृष्ट काल एक वर्ष और जघन्य भिन्न ( एक समय कम ) मुहूर्त है। शेष कायोत्सर्ग शक्ति के अनुसार अनेक स्थानों में होते हैं। आगे दैवसिक प्रतिक्रमण आदि में कुछ काल का प्रमाण भी निर्दिष्ट किया गया है। - यहां ऊपर पांच महाव्रत, पांच समितियां, पांच इन्द्रियों का निरोध और छह आवश्यक – इन इक्कीस मूल गुणों के विषय में संक्षेप से प्रकाश डाला गया है। अब सात अन्य आवश्यक जो शेष रह जाते हैं, वे इस प्रकार हैं लोच-सिर और दाढ़ी आदि के बालों को जो हाथों से उखाड़ा जाता है वह 'लोच' कर्म कहलाता है। वह उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें दो मासों के पूर्ण होने पर जो लोच किया जाता है उसे उत्कृष्ट, तीन मासों के पूर्ण होने पर या उसके बीच में जो लोच किया जाता है उसे मध्यम तथा चार मासों के पूर्ण होने पर या उनके अपूर्ण रहते भी जो लोच किया जाता है, उसे जघन्य माना गया है। उस लोच को पाक्षिक व चातुर्मासिक आदि प्रतिक्रमण के दिन उपवासपूर्वक करना चाहिए । यद्यपि बालों को कैंची या उस्तरा आदि की सहायता से भी हटाया जा सकता है, पर उसमें परावलम्बन है। कारण कि उनको दीनतापूर्वक किसी अन्य से मांगना पड़ेगा, परिग्रह रूप होने से उन्हें पास में रखा भी नहीं जा सकता है। बाह्य व आभ्यन्तर परिग्रह का सर्वथा त्याग करने वाले मुनि का मार्ग पूर्णतया स्वावलम्बन रूप है। बालों के बढ़ने पर उनमें जूं आदि क्षुद्र जन्तु उत्पन्न होने वाले हैं जिनके विघात को नहीं रोका जा सकता है। बालों के बढाने में राग-भाव भी सम्भव है। इसके अतिरिक्त लोच करने में आत्मबल और सहनशीलता भी प्रकट होती है। इन सब कारणों से उस लोच को मुनि के मूल गुणों में ग्रहण किया गया है। १.१/२० २. वही, ७ / १३६-५० "1 ३. 33 १/२८ ७ /१५०-८६ ४. ५. वही, ७ /१५३-६४ ६. वही, १-२ व उसकी वृत्ति । :५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only आचार्य रत्न श्री देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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