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________________ प्राप्त नहीं कर सकता। राग-द्वेष एक ऐसी कालिमा है जिसके रहते हुए जीव परम शुद्ध वीतराग-भाव को प्राप्त नहीं कर सकता। जो मनुष्य मोह-दृष्टि को नष्ट कर आगम में कुशलता प्राप्त करता है--आगम-ज्ञान के माध्यम से निजस्वरूप का अध्ययन करता है, तथा विरागचर्या---वीतराग-चरित्र--में पूर्ण प्रयत्न से उपस्थित रहता है, वही श्रमण-मुनि-धर्म नाम से व्यवहृत होता है । कुन्दकुन्दाचार्य ने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा है सब्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा । किच्चा तधोवदेशं णिव्वादा ते णमो तेसि ॥२॥ (प्रवचनसार : ज्ञानाधिकार) सभी अर्हन्त इसी विधि से—इसी रत्नत्रय के मार्ग से - कर्मों का क्षय कर तथा तत्त्वों का उपदेश कर निर्वाण को प्राप्त हुए हैं। उन्हें मेरा नमस्कार हो। आत्मा वीतराग-स्वभाव है। उसकी प्राप्ति वीतराग-परिणति से ही हो सकती है, सराग परिणति से नहीं। इसलिए मुमुक्षु प्राणी को वीतराग-चर्या में ही अहर्निश निमग्न रहना चाहिए। प्रवचनसार के चारित्राधिकार के प्रारम्भ में ही अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धिद्रव्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धौ । बुद्दवेति कर्माविरताः परेऽपि द्रव्याविरुद्धं चरणं चरन्तु ॥ परम पारिणामिक भाव से युक्त, शाश्वत सुखधाम आत्मद्रव्य की सिद्धि होने पर, कर्म, नोकर्म और भावकर्म से पृथक् अनुभूति होने पर, चारित्र की सिद्धि होती है और चारित्र की सिद्धि होने पर उस आत्मद्रव्य की सिद्धि होती है—पर से भिन्न अखण्ड एक आत्मद्रव्य की उपलब्धि होती है इसलिए अन्य जीव भी ऐसा जानकर निरन्तर उद्यमवन्त हो आत्म-द्रव्य के अविरुद्ध चारित्र का आचरण करें। दुःख-निवृत्ति का साधन यदि कोई है तो वह सम्यक्-चारित्र ही है, सम्यक्-चारित्र की पूर्णता श्रामण्य मुनिपद में ही होती है। अतएव कुन्दकुन्द स्वामी स्नेहपूर्ण भाषा में संबोधित करते हुए कहते हैं पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुःखपरिमोक्खं ॥१॥ (प्रवचनसार, चारित्राधिकार) हे भद्र ! यदि तू दुःखों से सर्वथा निवृत्ति चाहता है तो श्रामण्य-मुनि पद अंगीकार कर। जिसका चित्त संसार से विरक्त हो चुका है, ऐसा मुमुक्षु पुरुष, लोक-व्यवहार की पूर्ति के लिए बन्धु-वर्ग से पूछता है तथा मातापिता, स्त्री-पुत्र से छुट्टी पाकर पंचाचार के धारक आचार्य की शरण में जाता है । बन्धुवर्ग से पूछने आदि की बात मात्र लोक-व्यवहार की पूर्ति है। अन्तरंग में जब वैराग्य का प्रवाह जोर पकड़ता है तब वज्रदन्त चक्रवर्ती जैसे महापुरुष यह नहीं विकल्प करते कि यह षट्खण्ड का वैभव कौन सँभालेगा? वे अल्पवयस्क पौत्र को राज-तिलक लगाकर बन को चल देते हैं। स्त्री के अनुराग में निमग्न उदयसुन्दर स्त्री के अल्पकालीन विरह को भी नहीं सह सका इसलिए उसके साथ ही चला, परन्तु मार्ग में वन-खण्ड के बीच निश्चलासन से विराजमान ध्यानमग्न मुनिराज को देख संसार से विरक्त हो गया और वहीं पर दिगम्बर मुद्रा का धारी हो गया । स्त्री आयिका बन गई और बहिन को लेने के लिए आया हुआ उदयसुन्दर का साला भी मुनि हो गया। सुकोशन स्वामी माता की आज्ञा के विपरीत अपने पिता कीर्तिधर मुनिराज के समीप जाकर मुनिव्रत धारण कर लेते हैं । सुकुमाल स्वामी रस्सी द्वारा महल के उपरितन खण्ड से नीचे उतर मुनिराज की शरण में पहुंचते हैं और प्रायोपगमन संन्यास धारण कर सुगति के पात्र होते हैं । दीक्षा लेने का निश्चय कर प्रद्युम्न राजसभा में जाकर बलदेव और श्रीकृष्ण से आज्ञा मांगते हैं । दीक्षा लेने की बात सुन कर बलदेव हँसकर कहते है-अहो, मैं बूढ़ा बैठा हूं, पर बच्चा दीक्षा लेने की बात कहता है ! प्रद्युम्न उत्तर देते हैं.—आप लोग तो संसार के स्तम्भ हैं-आपके ऊपर संसार का भार लदा हुआ है परन्तु मैं तो स्तम्भ नहीं हूं, इसलिए दीक्षा लेने का मेरा दृढ़ संकल्प है। राजसभा से निवृत्त हो प्रद्युम्न अन्तःपुर में जाकर स्त्री से कहते हैं-प्रिये ! मेरा गृह-त्याग कर दीक्षा लेने का भाव है। स्त्री पहले से ही विरक्त थी, अत: कहती है—जब दीक्षा लेने का भाव है तब 'प्रिये' संबोधन की क्या आवश्यकता है ? जान पड़ता है अभी आपका वैराग्य मुख में ही है, हृदय तक नहीं पहुंचा। आपके पहले मैं गृह-त्याग करूंगी। अहा, ऐसे निकट भव्य-अल्प संसारी जीव जब विरक्त होते हैं तब उन्हें किसी से आज्ञा लेने का बन्धन नहीं है। जिस प्रकार बन्धन तोड़ मत्त हाथी वन की ओर भागता है, उसी प्रकार वे लोग गृहस्थी का बन्धन तोड़ वन की ओर भागते हैं। विरक्त पुरुष वन में आचार्य-चरणों के निकट जाकर गद्गद-कण्ठ से निवेदन करता है--भगवन, मां प्रतीच्छ—मुझे अंगीकार करो-चरणों की शरण दो । मैंने निश्चय कर लिया है णाहं होमि परेसि ण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि ॥४॥ (प्रवचनसार, चारित्राधिकार) आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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