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+५००=२००० योजन लम्बा है। इनको आपस में गुणा करने से २३८x२०००=४,७६,०००वर्ग योजन प्रमाण आर्य खण्ड का क्षेत्रफल हो जाता है । अथवा ४,७६,०००x४०,००,०००=१,६०,४,००,००,००,००० 'एक लाख, नव्वे हजार, चार सौ करोड़ वर्ग-कोश' प्रमाण क्षेत्रफल हो जाता है।
आर्यखण्ड
इस आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। इस अयोध्या के दक्षिण में ११६ योजन की दूरी पर लवण समुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूर पर विजया पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगा नदी की तट वेदी है अर्थात् आर्यखण्ड की दक्षिण दिशा में लवण समुद्र, उत्तर दिशा में विजया, पूर्व दिशा में गंगा नदी एवं पश्चिम दिशा में सिंधु नदी हैं। ये चारों आर्य खण्ड की सीमा रूप हैं।
अयोध्या से दक्षिण में लगभग ४,७६,००० कोश (चार लाख छहत्तर हजार)कोस जाने से लवण समुद्र है और उत्तर में इतना ही जाने से विजया पर्वत है । उसी प्रकार अयोध्या से पूर्व में ४०,००,००० (चालीस लाख) कोस दूर गंगानदी तथा पश्चिम में इतनी ही दूर सिन्धु नदी है।
जैनाचार्यों के कथनानुसार आज का सारा विश्व इस आर्यखण्ड में ही है। हम और आप सभी इस आर्यखण्ड के ही भारतवर्ष में रहते हैं। वर्तमान में जो गंगा-सिन्धु नदियां दिखती हैं, और जो महासमुद्र, हिमालय पर्वत आदि हैं, वे सब कृत्रिम हैं । अकृत्रिम नदी, समुद्र और पर्वतों से अतिरिक्त ये सभी उपनदी, उपसमुद्र, उपपर्वत आदि हैं। इन सभी विषयों का विशेष विस्तार समझने के लिए तिलोयपक्षणत्ति, त्रिलोकसार, तत्त्वार्थराजवातिक, जम्बूद्वीपपण्णत्ति, त्रिलोकभास्कर आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए।
भूभ्रमण-खण्डन
आज के भूगोल के अनुसार कुछ विद्वान् पृथ्वी को घूमती हुई मान रहे हैं। उसके विषय में तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्थ में तृतीय अध्याय में बहुत अच्छा विवेचन है, वह द्रष्टव्य है
कोई आधुनिक विद्वान् कहते हैं कि जैनियों की मान्यता के अनुरूप यह पृथ्वी वलयाकार चपटी गोल नहीं है, किन्तु यह पृथ्वी गेंद या नारंगी के समान गोल आकार की है। यह भूमि स्थिर भी नहीं है । हमेशा ही ऊपर-नीचे घूमती रहती है, तथा सूर्य, चन्द्र, शनि, शुक्र आदि ग्रह, अश्विनी, भरणी आदि नक्षत्रचक्र, मेरु के चारों तरफ प्रदक्षिणा रूप से अवस्थित है, घूमते नहीं हैं । यह पृथ्वी एक विशेष वायु के निमित्त से ही घूमती है । इस पृथ्वी के घूमने से ही सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि का उदय, अस्त आदि व्यवहार बन जाता है, इत्यादि।
दूसरे कोई वादी पृथ्वी का हमेशा अधोगमन ही मानते हैं एवं कोई-कोई आधुनिक पंडित अपनी बुद्धि में यों मान बैठे हैं कि पृथ्वी दिन पर दिन सूर्य के निकट होती चली जा रही है। इसके विरुद्ध कोई-कोई विद्वान प्रतिदिन पृथ्वी को सूर्य से दूरतम होती हुई मान रहे हैं । इसी प्रकार कोई-कोई परिपूर्ण जल-भाग से पृथ्वी को उदित हुई मानते हैं।
किन्तु उक्त कल्पनाएं प्रमाणों द्वारा सिद्ध नहीं होती हैं। थोड़े ही दिनों में परस्पर एक-दूसरे का विरोध करने वाले विद्वान् खड़े हो जाते हैं और पहले-पहले के विज्ञान या ज्योतिष यंत्र के प्रयोग भी युक्तियों द्वारा बिगाड़ दिये जाते हैं।
इसका उत्तर जैनाचार्य इस प्रकार देते हैं---
भूगोल का वायु के द्वारा भ्रमण मानने पर तो समुद्र, नदी, सरोवर आदि के जल की जो स्थिति देखी जाती है, उसमें विरोध आता है।
जैसे कि पाषाण के गोले को घूमता हुआ मानने पर अधिक जल ठहर नहीं सकता है। अत: भू अचल ही है। वह भ्रमण नहीं करती है । पृथ्वी तो सतत घूमती रहे और समुद्र आदि का जल सर्वथा जहां का तहां स्थिर रहे, यह बन नहीं सकता। अर्थात् गंगा नदी जैसे हरिद्वार से कलकत्ता की ओर बहती है, पृथ्वी के गोल होने पर उल्टी भी बह जाएगी। समुद्र और कुओं के जल गिर पड़ेंगे। घूमती हुई वस्तु पर अधिक जल नहीं ठहर कर गिरेगा ही गिरेगा।
दूसरी बात यह है कि—पृथ्वी स्वयं भारी है। अद्य:पतन स्वभाव वाले बहुत से जल, बालू, रेत आदि पदार्थ हैं जिनके ऊपर रहने से नारंगी के समान गोल पृथ्वी हमेशा घूमती रहे और पे सब ऊपर ठहरे रहें—पर्वत, समुद्र, शहर, महल आदि जहां के तहां बने रहेंयह बात असंभव है।
यहां पुनः कोई भूभ्रमणवादी कहते हैं कि घूमती हुई इस गोल पृथ्वी पर समुद्र आदि के जल को रोके रहने वाली एक वायु है जिसके निमित्त से समुद्र आदि ये सब जहां के तहां ही स्थिर बने रहते हैं।
जैन धर्म एवं आचार
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