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________________ देखने का प्रयत्न किया जाता है। उन मंत्राक्षरों में एकात्मा की अनुभूति की जाती है। और वह उसी रूप में बनने का प्रयत्न करता है। जैसा ध्यान करता है वैसा ही साधक बन जाता है। यदि साधक रुद्र का चिन्तन करे तो रुद्र बनता है। और विष्णु का चिन्तन करे तो विष्णु । मनुष्य जिस स्वरूप का चिन्तन करता है उसी रूप में बन जाता है। पदस्थ ध्यान में उसी स्वरूप का चिन्तन किया जाता है। पदस्थ ध्यान को सिद्ध करने हेतु कितने ही जैनाचार्यों ने सिद्ध चक्र की कल्पना की है। इस सिद्ध चक्र में आठ पंखुड़ियों वाले श्वेत कमल की कल्पना की जाती है और उसके बीज कोश में 'नमो अरिहंताणं' की कल्पना की जाती है और चारों दिशाओं में पंखुड़ियों पर 'नमो सिद्धाणं', 'नमो आयरियाणं', 'नमो उवज्झायाणं', 'नमो लोए सव्वसाहूण' इन चार पदों की स्थापना की जाती है, चार विदिशा में चार पंखुड़ियों पर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप इन चार की कल्पना की जाती है। इन नौ पदों की स्थापना कर सिद्ध चक्र पर ध्यान किया जाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के स्थान पर “एसो पंचनमुक्कारों सव्वपावपणासणो मंगलाणं च सव्वेसि पढम हवइ मंगलं" इन चार पदों की कल्पना की है। निरन्तर अभ्यास करने से आलंबन में अधिक दृढ़ता आती है। इसी तरह अन्य मन्त्रों की भी स्थापना की जा सकती है। आगम के किसी पद को भी लेकर ध्यान किया जा सकता है। पर यह ध्यान रखना होगा कि मन को एक ही विचारधारा में प्रवाहित करना होगा। सिद्धचक्र की तरह अविनाशी आत्मस्वरूप का भी ध्यान किया जाता है। उसमें नाभि-कमल, हृदय-कमल, मुख-कमल पर अक्षरों की संस्थापना करके प्रत्येक अक्षर पर मन से चिन्तन किया जाता है। जैसे नाभिकमल के मध्य में अर्ह लिखा है तो सर्वप्रथम अहँ के भावार्थ पर, उसके स्वरूप पर चिन्तन करना चाहिए; उसके पश्चात् अ आ इ ई प्रभृति अक्षरों पर चिन्तन करना चाहिए । उदाहरणार्थ अ अक्षर अरिहंत, उसका स्वरूप, उस पद को प्राप्त करने का उपाय, उसके साथ ही 'अ' याने अजर-अमर आदि के स्वरूप पर चिन्तन करना । उसके बाद 'आ' याने आत्मा, उसके स्वरूप और उसके दर्शन की कमनीय कल्पना से मन को भावित करना । जब चिन्तन-प्रवाह प्रारंभ होगा तब मन उसमें स्थिर हो जाएगा। जब वहां से मन तृप्त हो जाए तब उसे हृदय-कमल पर षोडशदल कमल के एक-एक अक्षर पर मन को घुमाना चाहिए जैसे क यानी कर्म, कर्म से मुक्त होने का उपाय क्या है ? 'ख याने खंति याने क्षमा किस तरह से धारण करनी चाहिए, आदि प्रत्येक अक्षर पर चिन्तन करना चाहिए। उसके पश्चात् मुख कमल पर ध्यान केन्द्रित किया जाय। इस तरह एक मुहुर्त तक मन-रूपी भौंरे को एक-एक अक्षर पर घुमाकर उसके अपूर्व आनन्द को लिया जा सकता है। पदस्थ ध्यान में बीजाक्षरों पर भी चिन्तन किया जा सकता है। एकाक्षरी मंत्र ओ३म् आदि मंत्रों पर भी चिन्तन किया जाता है। रूपस्थ ध्यान रूपयुक्त तीर्थंकर आदि का चिन्तन करना।' साधक एकान्त शान्त स्थान पर बैठता है। आंखें मूंदकर हृदय की आंखें खोल देता है। मन में विविध प्रकार की कल्पनाएं संजोता है । भगवान् का दिव्य समवसरण लगा हुआ है। मैं पावन प्रवचन-पीयूष का पान कर रहा हूं और नेत्रों से परिषद को निहार रहा हूं। इस प्रकार कल्पना करके रूप का ध्यान करना। रूपातीत ध्यान यह ध्यान का चतुर्थ प्रकार है। इसमें निरंजन-निराकार के सिद्ध स्वरूप का ध्यान किया जाता है। आत्मा स्वयं को कर्ममल-मुक्त सिद्धस्वरूप में अनुभव करता है। इस ध्यान में किसी प्रकार की कोई कल्पना नहीं होती, न मन्त्र या पद का स्मरण होता है। साधक मन को इतना साध लेता है कि बिना किसी आलंबन के मन को स्थिर कर लेता है। वह यह जानता है कि मैं अरूप हूं, जो कुछ भी दिखाई दे रहा है वह आत्मा का स्वभाव नहीं है, वरन् कर्मों का स्वभाव है । यह ध्यान विचारशून्य होता है । इस ध्यान तक पहुंचने के लिए प्रारंभिक भूमिका अपेक्षित है। इस ध्यान में ध्याता, ध्येय और ध्यान रूप मिट जाते हैं। जैसे नदियां समुद्र में अपना अस्तित्व समाप्त कर देती हैं वैसे ही ध्याता और ध्यान भी एकाकार हो जाते हैं । शुक्ल ध्यान यह ध्यान की सर्वोत्कृष्ट दशा है। जब मन में से विषय-वासनाएं नष्ट हो जाती हैं तो वह पूर्ण विशुद्ध हो जाता है। पवित्र मन पूर्णरूप से एकाग्र होता है, उसमें स्थैर्य आता है। शुक्ल ध्यान के स्वरूप पर चिन्तन करते हुए लिखा है-जिस ध्यान में बाह्य विषयों का सम्बन्ध होने पर भी उनकी ओर तनिक मात्र भी ध्यान नहीं जाता, उसके मन में वैराग्य की प्रबलता होती है। यदि इस ध्यान की स्थिति में साधक के शरीर पर कोई प्रहार करता है, उसका छेदन-भेदन करता है, तो भी उसके मन में किंचित् मात्र भी संक्लेश नहीं होता । भयंकर से १. अर्हतो रूपमालम्ब्य ध्यानं रूपस्थमुच्यते । योगशास्त्र, ६/७ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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