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________________ तमिलनाडु में जैन धर्म एवं तमिल भाषा के विकास में जैनाचार्यों का योगदान -पं० सिंहचन्द्र जैन शास्त्री श्रमण संस्कृति अति प्राचीन है। अनादिकाल से अनन्तानन्त तीर्थंकरों ने इस संस्कृति को अक्षुण्ण रूप से प्रवहमाद रखा है। पोक तीर्थकर के समय में श्रावक, श्राविका, मुनि, आर्यका के संघ विद्यमान थे। वर्तमान में तीर्थकर न होने पर भी चतुर्विध संघ का अस्तित्व अवश्य है, और पंचमकाल के अंतिम समय तक अवश्य रहेगा ही। भारत देश ऋषिमुनियों का देश है । यह धर्म-प्रधान भूमि है। देवता भी इस पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए तरसते हैं, ऐसा भागवत में लिखा है। यहां योग, भोग, त्याग भी हैं, मात्र भौतिक सामग्री की प्रधानता नहीं है। इस अवनितल में सत्पुरुष, धर्म संस्थापक, वैज्ञानिक, दार्शनिकों ने जन्म लिये हैं; साधु-सन्तगण, वैराग्य, ध्यान. साधना, इन्द्रियनि ग्रह आदि में निमग्न होकर इस वसुन्धरा को शोभित करते हुए संसार-सागर में निमज्ज जनता को देशना के द्वारा उस सागर से उत्तीर्ण कराने वाले वर्तमान में विद्यमान हैं। सदा आत्मरस में लीन रहने वाले साहसमय जागरूप कौतूहलिक अन्वेषक एवं साधक भी वर्तमान हैं। जैन धर्म विश्व के संपूर्ण धर्मों में अग्रगण्य है । इस धर्म के उपदेशक आचार्य दार्शनिक, तत्त्वचिन्तक, अपूर्व त्यागनिष्ठ चारित्र के उन्नायक होने के कारण संसार में आदर्श ख्याति प्राप्त किये हैं । इस धर्म का आधार आध्यात्मिक साधना, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह आदि है। निग्रंथ आचार्य ही वर्तमान में धर्म के संरक्षक हैं। वे अपने आत्मोद्धार के कार्य में संलग्न होने पर भी परहित के कार्य में निरन्तर प्रयत्नशील होते हैं। वे अलौकिक मुक्ति-पथ को दर्शाते हैं । प्राणिमात्र के लिए मौलिक वस्तु को प्रदान करने वाले हैं। तीर्थंकरों का गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और मोक्ष आदि पांचों कल्याण उत्तर भारत में ही हुए हैं परन्तु उन तीर्थंकरों की वाणी को शास्त्रबद्ध करके वर्तमान जनता को प्रदान करने वाले आचार्यों का जन्म प्राय: दक्षिण भारत में ही हुआ है। अत: प्राचीन काल से ही उत्तर और दक्षिण का अपूर्व संगम है। भारत के गरिमामय इतिहास में दक्षिण पथ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उत्तर और दक्षिण के खान-पान, पहनावे एवं भाषा में वैविध्य होने पर भी विविधा में एकता है । भारतीय संस्कृति की दृष्टि से यह विविधता व विभिन्नता भारतवर्ष का बाह्य रूप है परन्तु धर्म की दृष्टि से विसमता का रूप नहीं है। धर्म की दृष्टि से निहित इस सांस्कृतिक एकता के रूप का परिचय प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। यह जानना भी आवश्यक है कि इस जैन संस्कृति के निर्माण में किस प्रदेश का क्या विशिष्ट योगदान रहा है। विभिन्न भाषाओं के साहित्य का अध्ययन इस कार्य में अत्यन्त सहायक होगा। तमिल साहित्य भारत के अन्यान्य साहित्यों से विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। धर्म, साहित्य, राजनीति, कला, आदि क्षेत्रों में तमिल प्रदेश के निवासी प्राचीन काल से ही अग्रगामी रहे हैं। जैन आचार्यों ने तमिल भाषा के उच्चकोटि के साहित्य की रचना करके प्रबुद्ध समाज के लिए महान् उपकार किया है। धर्म, व्याकरण, साहित्य, ज्योतिष, संगीत, आयुर्वेद आदि विषयों के ग्रन्थों की रचना करके तमिल भाषा को प्रज्वलित करने वाले जैन आचार्य ही थे। उनके लिखे ग्रन्थों में अलौकिक मक्ति को देने वाला विषय भी है और प्राणिमात्र के लिए ऐहिक सुख को पहुंचाने वाली सामग्री भी । किसी भी प्रदेश के इतिहास व धर्म के अस्तित्व को ज्ञात करने के लिए उस प्रदेश के साहित्य, अभिलेख और आचार्यों की आदर्श सेवा ही प्रमाणभूत होते हैं। अब हमें यह विचार करना है कि तमिलनाडु में जैन धर्म का अस्तित्व कब से रहा, तमिल साहित्या १८० आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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