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________________ तो उन्हें श्रृंगार रस की व्यंजना के लिए मुक्ति को नायिका बनाना पड़ा तथा कामदेव, रुद्रदेव आदि को प्रतिद्वन्द्वी बनाकर वीर रस के उपादान जुटाने पड़े । सदसद् कर्मों का फल चित्रित करने के लिए प्रमुख पात्रों के पूर्व भव-भवान्तरों का विस्तृत वर्णन तथा महत्त्वपूर्ण घटनाओं से पूर्व तत्सम्बन्धी स्वप्नों व स्वप्नफलों का उल्लेख जैन महाकाव्यों की कथानकगत सीमा ही कही जा सकती है, तथापि कई आधुनिक महाकाव्यकारों ने इन सीमाओं, आक्षेपों व चुनोतियों को अविकल झेलकर, तीर्थंकरों के जीवन को सम्पर्ण गरिमा प्रदान करते हए सरल तथा मार्मिक रूप में अभिव्यक्त किया है। इन प्रबुद्ध महाकाव्यकारों ने परम्परा का पालन अवश्य किया है पर परम्परा की रुढ़ियों का नहीं। वैसे भी आधुनिक हिन्दी महाकाव्य अपने नवीन परिपाश्वों में, पाश्चात्य प्रतिमानों के प्रभाव के अनन्तर भी पौराणिकता एवं भारतीयता से दूर नहीं रह सके हैं । उनकी इतिवृत्त योजना पर पौराणिक साहित्य का प्रभूत प्रभाव स्पष्ट है तथा उनकी सगंबद्धता, वर्णन शैली, शैलीगत संयोजना, भाषात्मक अलंकृति, उद्देश्य (धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ की प्राप्ति), पात्र-परिकल्पना आदि पर प्राचीन भारतीय प्रबंधों का प्रभाव प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में देखा जा सकता है। आधुनिक हिन्दी जैन महाकाव्य भी अपनी समृद्ध पौराणिक व ऐतिहासिक पीठिका से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं । जिस प्रकार आर्षग्रन्थ 'रामायण' व 'महाभारत' अधिकांश हिन्दी प्रबन्धकाव्यों के उपजीव्य हैं उसी भांति जैन महाकाव्यों के मूलाधार प्रथमानु योगगत पुराण ग्रन्थ हैं। जैन काव्य-साहित्य की उपलब्ध सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है कि उसका निर्माण ईसा की प्रथम शताब्दी से प्रारम्भ हो गया था और दसवीं शती पर्यंत संस्कृत व उसके समानान्तर प्राकृत भाषाओं में अनेकों उत्कृष्ट जैन प्रबन्धों की रचना हयी। इसी मध्य अपभ्रंश जनमानस में स्थान ग्रहण करती जा रही थी, अत: लगभग १६वीं शती तक अपभ्रंश भाषा में प्रभूत जैन प्रबन्धकाव्य लिखे गए। १५ वीं शती में कवि साधारुकृत 'प्रद्युम्नचरित्र' (परदवणु चउपई) को प्रथम हिन्दी जैन प्रबंधकाव्य माना जाता है, तदपि उन्नीसवीं शताब्दी तक के प्रबंधों की भाषा पर अपभ्रंश, राजस्थानी, गुजराती तथा अन्य प्रांतीय बोलियों का प्राधान्य स्पष्टतः देखा जा सकता है। खड़ीबोली हिन्दी का साहित्यिक रूप बीसवीं शती में ही हमारे समक्ष आया । बीसवीं शताब्दी के भी प्रथम पाँच दशक हिन्दी जैन महाकाव्य लेखन की दृष्टि से उदासीन रहे । कदाचित् कवि इसी धारणा से आक्रान्त रहे कि तीर्थकर के जीवन पर आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट लक्षणों के आधार पर महाकाव्य रचना सम्भव नहीं, परन्तु पण्डित अनूप शर्मा ने 'वर्द्धमान' जैसे सरस महाकाव्य का सृजन करके अवरुद्ध मार्ग उद्घाटित कर दिया। भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से सन् १९५१ में प्रकाशित 'वर्द्धमान' १७ सर्गों तथा कुल १६६७ वर्ण वृत्तों में निबद्ध कलात्मक कोटि का महाकाव्य है जिसमें तीर्थकर वर्द्धमान महावीर का जीवनवृत्त क्षीण कथा-कलेवर के रूप में अत्यधिक संस्कृतनिष्ठ, समस्त पौली ऐणित के महाकाव्यकार ने महावीर (काव्य-नायक) के इतिवृत्त वर्णन में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर मान्यताओं में समन्वय-स्थापन की चेष्टा के साथ ही कल्पना का भी आश्रय लिया है, पर समन्वयवादी दृष्टि के अनन्तर भी जैन मान्यताओं की पूर्ण सुरक्षा नहीं हो सकी है। कवि का संस्कारगत ब्राह्मणत्व स्थान-स्थान पर मुखर है। काव्य के आरम्भिक छ: सर्गों में नायक के माता-पिता (त्रिशला-सिद्धार्थ) के पारस्परिक प्रेम के विस्तृत चित्रण द्वारा राग पक्ष के अभाव को दूर करने का प्रयास किया गया है पर ये वर्णन राज-दम्पत्ति की गरिमा के बहुत अनुकल नहीं हैं। सन् १९५६ में कवि वीरेन्द्र प्रसाद जैन द्वारा रचित लघु आकार का महाकाव्य 'तीर्थकर भगवान् महावीर' प्रकाशित आ। छ: वर्षों के बाद कुछ परिवर्द्धन के साथ उसका दूसरा संस्करण श्री अखिल विश्व जैन मिशन, अलीगंज, एटा से प्रकाशित हआ। प्रस्तुत महाकाव्य में सात सर्ग तथा कुल ११११ पद्य हैं। कवि ने सर्गान्त में छन्द परिवर्तन के नियम का निर्वाह किया है और लोकरंजक भगवान महावीर के सम्पूर्ण जीवनवृत्त को सरल, आडम्बररहित भाषा में सरस रूप में चित्रित किया है। - कवि धन्यकुमार जैन 'सुधेश' ने सन् १९५४ में 'परम ज्योति महावीर' महाकाव्य का सृजन प्रारम्भ किया था जो सन १६६१ में श्री फूलचन्द जवरचन्द गोधा जैन ग्रन्थमाला, इन्दौर से प्रकाशित हुआ। कवि ने स्वयं अपनी कृति को "करुण, धर्मवीर एवं शान्त रम प्रधान महाकाव्य" कहा है । २३ सर्गों वाले इस बृहत्काय महाकाव्य में कुल २५१६ पद्य हैं जिनका नियमपूर्वक विभाजन किया गया है। प्रत्येक सर्ग में १०८ पद्य हैं तथा ३३ पद्य प्रस्तावना में पृथक रूप से निबद्ध हैं। 'सुधेश' जी ने भगवान् महावीरकालीन राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्थिति के चित्रण का सफल प्रयास किया है, जैन दार्शनिक मान्यताएं भी अक्षुण्ण रही है । तीर्थंकर महावीर के सभी चातुर्मासों के वर्णन से कथानक में पूर्णता अवश्य आयी है, पर उससे अवांछित विस्तार तथा नीरसता का संचार ही हुआ है। तदपि आद्योपान्त चौपाई छन्द और सरल सुबोध भाषा में विरचित 'परम ज्योति महावीर' सफल महाकाव्य है। श्री अखिल विश्व जैन मिशन, अलीगंज से सन् १९६४ में कवि मोतीलाल मार्तण्ड 'ऋषभदेव' कृत प्र श्री ऋषभचरितसार' प्रकाशित हुआ। प्रस्तुत प्रबन्ध को लघु आकार का महाकाव्य कह सकते हैं। मार्तण्ड जी ने जिनसेना ।। २५ महापुराण जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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