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________________ राजाज्ञा से सभी लोग यहां से चले गए। केवल राजा और अभय कुमार की उपस्थिति में रोहिणेय को लाया गया। राजा ने कहा कि रौहिणेय, तुम्हारे सब अपराध मैंने क्षमा किये, पर तुम निःशङक होकर बताओ कि यह सब तुमने कैसे किया ? डाक ने निःशेषमेतन्मुषितंपत्तनं भवतो मया नान्वेषणीयः कोऽप्यन्यस्तस्करः पृथिवीपते ।६.२८। आज जो कुछ किया उसमें हेतु महावीर स्वामी हैं बन्यो वीरजिनः कृपकवसतिस्तत्तत्र हेतुः परः । ६.३०। डाक ने अपनी बात बताई कि महावीर की वाणी कान में न पड़ जाये, अन: उसने हाथ से कान बन्द कर लिये, पर कांटा निकालने के लिये हाथ कान से हटाना पड़ा तो हमें देवलक्षण सुनाई पड़ा, जिसके आधार पर मैंने जान लिया कि मेरे चारों ओर जो देवलोक बना था, वह वास्तविक नहीं था। मैंने इतने समय तक पिता की बात मानकर महावीर को वाणी नहीं सुनी। वस्तुत: इहापास्याभ्राणि प्रवररसपूर्णानि तदहो कृता काकेनेव प्रकटकनिम्बे रसिकता १६.३४। ___ अब मैं महावीर के चरण कमलों की सेवा में रहूँगा । उसने मंत्री से कहा कि मेरे द्वारा चुरायी गयी सभी वस्तयें दे दी जायें । रोहिणेय उन सबको चण्डिकायतन में ले गया वहां उसने उस कपाट को खोला, जिस पर कात्यायनी का रूप उत्कीर्ण था। वहां मदनवती और मनोरथकुमार तथा अतुलित स्वर्ण राशि मिली । सबको उनकी चोरित वस्तुयें मिल गयीं। राजा से अनुमति मांगने पर रोहिणेय का अभिनन्दन किया गया।' प्रबुद्ध रोहिणेय का कथानक संस्कृत नाट्यसाहित्य में अनूठा ही है। इस डाक को प्रकरण का नायक बनाकर उसके चारों ओर की नृत्य-सङ्गीत की दुनियाँ में संस्कृत का कोई रूपक इतना मनोरञ्जन नहीं करा सका है। नाटक में कूट घटनाओं का संभार है। इस युग में अन्य कई नाटकों में कूट घटनाओं और कूट पुरुषों की प्रचुरता मिलती है। सेठ ने डाक् को पकड़ने के लिए अनेकों कापटिक कर्मों की योजना बनाई। लेखक जैन है किन्तु उसने पूरे कथानक में कहीं भी जैनधर्म का प्रचार नहीं किया। गौण रूप से जैनधर्म की उत्तमता प्रतिपादित करने से इस नाटक की कलात्मकता अक्षुण्ण रह सकी है। इस नाटक में देवभूमि से लेकर गिरि गुफा तक का दृश्य तथा न्यायालय, वसन्तोत्सव, समवसरण आदि की प्रवृत्तियों का दृश्य वैचित्र्यपूर्ण है। रामभद्र की प्रसादगुणोत्पन्न शली सानुप्रास-संगीत निर्भर है।' कवि की गद्य शैली भी थिरकती हुई नर्तनमयी प्रतीत होती है।' इनमें स्वरों का अनुप्रास उल्लेखनीय है। त्वं धन्यः सुकृती स्वमद्भुत गुणस्त्वं विश्वविश्वोत्तमस्त्वं इलाध्योऽखिलकल्मषं च भवता प्रक्षालितं चोर्यजम । पुष्यैः सर्वजनीनतापरिगतो यो भूभुर्वःस्वोऽचितो यस्तो वीरजिनेश्वरस्य चरणी लीनः शरण्यो भवान् । ६.४॥ २. तेस्तै घटकटकोटिघटनस्तं घट्टयिष्ये तथा । ३.२२ | क्वचिन्मल्लीवल्लीतरल मुकुलोद्भासितवना । क्वचित् पुष्पामोदभ्रमलिक लावबवलया। क्वचिन मत्तकीरत, परभृतवधूवानसृभगा क्वचित् क जत्पारापतविततलीला सुललिता | १.६| ४. बस्तसमस्तकोका: सततविहितबिम्बोकाः सफलीकृत जीवलोका: कोहन्त्यमी लोकाः | १७४ आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज मभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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