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________________ फलत: असंख्य मधुमक्खियां उड़ पड़ीं और पथिक को काटने लगीं। पथिक का कष्ट और अधिक बढ़ गया। तभी छत्त से मधु की बून्दें भी टपकों जो पथिक के मुंह में पड़ीं। पथिक की जिह्वा ने उन मधु-मून्दों का आस्वाद्य पाया मधु बन्दों के आस्वाद से प्राप्त क्षणिक सुख में पथिक अपने सभी दुख भूल गया ( पद्य - ४ ) । रूपक कथा इतनी ही है । पाँचवें पद्य में कवि ने रूपक को स्पष्ट किया है । यथा जीव, १. पथिक निगोद, २. जंगल अज्ञान, संसार, जीवन की आशा, गति (दिशा), ५. सरकण्डा ७. अजगर ८. मधु-बून्द ६. मूषकद्वय विषय-सुख, रात-दिन ३. हाथी यम, ६. फणिधर रूपक को स्पष्ट करने के पश्चात् अन्तिम (छठे ) पद्य में छोहल ने संसारी जीव को उपदेश दिया है कि संसार का यही व्यवहार है | अतः, हे गँवार ! तू चेत जा । जो मोह निद्रा में सोये हैं, वे असावधान हैं; यही कारण है कि वे जिनेन्द्र को भूल गये हैं । शरीर सुख और इन्द्रियों के रस में भटक जाना मानव-जीवन को व्यर्थ नष्ट कर देना है । हे आत्मन् ! अब तक तू नाना प्रकार के दीर्घ दुखों को सहन करता रहा है; जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित मुक्ति मार्ग की युक्तियों का अवलम्बन कर तू अब भी मुक्ति पद प्राप्त कर सकता है ( पद्य ६ ) । 6. कूप - Jain Education International स्पष्ट है कि रूपक के मिस छोहल संसारी जीव को जिनेन्द्र की भक्ति की ओर ही उन्मुख करना चाहते हैं । जैन मरमी संतों की यह रूपक अधिक प्रिय रहा है। छील के परवर्ती अनेक जैन कवियों ने इस पर पद्य रचना की है। भैया भगवतीदास की 'मधुबिन्दुक चौपाई' इस दृष्टि से देखी जा सकती है । छोहल की यह रूपक रचना अपनी सीमाओं में एक उत्तम लघु रूपक काव्य है । यों इसका सम्पूर्ण स्वर बोधपरक है, पर भक्ति काव्य की यही सीमा और शक्ति रही है । ५. बेलि 'पंचेन्द्रिय वेलि' चार पद्यों की भक्तिपरक रचना है । पद्यों में आत्मसम्बोधन और जिनेश्वर की भक्ति के उपदेश निहित हैं। आगे प्रत्येक पद्य का कथ्य उपस्थित किया जाता है । मन को उपदेश करते हुए छीहल कहते है : हे आत्मन् ! तू भ्रमवश विषय-वासना के वन में क्यों भटक रहा है ? तू ममत्व में क्यों भूल गया है ? तुम्हारी मति कैसी हो गयी है? सारे सांसारिक विषय गजल की तरह हैं। इनसे कभी वृति नहीं मिलती। घर, शरीर, सम्पत्ति, पुत्र, बन्धु - सभी नश्वर हैं। उन्हें अनश्वर जान कर ही तू अब तक जिनेश्वर की सेवा से विमुख रहा है। तू सचमुमूर्ख और अज्ञानी है । अब भी समय है, सँभल जाओ (पद्य - १ ) । हे आत्मन ! अनेक योनियों में भ्रमण करने के पश्चात् तुझे यह मानव-जोवन तू इस जीवन को व्यर्थ मत नष्ट कर- -काग को उड़ाने के लिए चिन्तामणि को नष्ट करना व्यर्थ है। सांसारिक सुख स्वप्नवत् असार हैं। जीवन की सार्वकता जिनेश्वर की भक्ति करने में ही है (पय-२) । — 7 मिला है। यह देवों के लिए भी दुर्लभ है । व्यर्थ है । जिनेश्वर की सेवा के बिना सब हे आत्मन् ! मरते समय केवल धर्म ही तुम्हारी सहायता करेगा। अतः, शरीर में जब तक प्राण है तब तक सुकृत कर धर्म अर्जित करले । संसार में सर्वोत्तम धर्म है जीवों पर दया करना। इस धर्म का तू दृढ़तापूर्वक पालन कर । अरिहंत का ध्यान करते हुए संपम-भावना को धारण कर; परधन, परस्त्री और परनिन्दा का परित्याग कर सदा परोपकार में लगा रह । परोपकार ही धर्म का सार है (पद्य-३) | हे आत्मन् ! जिनवर के नाम-स्मरण से कलियुग के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । अतः, पवित्रात्मा बन उनका चिन्तन कर । आराध्य देव को हृदय में स्थापित करने के लिए हृदय का पवित्र होना आवश्यक है। यदि हृदय घट अपवित्र है, तो जप, तप और तीर्थादि के भ्रमण, सब व्यर्थ हैं । यदि परद्रोह, लम्पटता, ऐन्द्रिक सुख इत्यादि मिथ्या कृत्य नहीं छूटते, तो जीवन व्यर्थ है । छीहल कहते हैं कि हे बावरे मन! तू इस सयानी सीख को ध्यान में रख कि जिनवर के चिन्तन करने से भवसागर का संतरण किया जा सकता है। संसार से मुक्त होने के लिए और कोई उपाय नहीं है (पद्य-४) । For Private & Personal Use Only उपरिविश्लेषण से स्पष्ट है कि इन चारों पों में छीलने ऐन्द्रिक माया और उसके आकर्षण से बचे रहने के लिए उपदेश किया है । पद्य प्रबोधनात्मक ही नहीं आत्मसम्बोधनात्मक भी हैं। मन चंचल है, भटक जाता है । अपने चंचल मन को आराध्यदेव जिनवर की ओर उन्मुख करने के लिए मरमी संत छोहल प्रयत्नशील हैं। छोहल के ये गीत कबीर के 'चेताउणी को अंग' अथवा १६७ जैन साहित्यानुशीलन www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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