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ख. एकतीसवां छप्पय
ठाकुर मित्त जु जाणि मूढ़ हरषइ जे चित्तह। अरु तिय तणउ विसास करइ जिय महिं जे नित्तह ॥ सरप सुनार जुआर सरिस जो प्रीति लगावइ । बेस्या अपणी जाणि छयल जो छंबउ छावह ।। विरचन्त बार इनकह नहीं, मूरिष मन जो रूचिया। छोहल्ल कहइ संसार महि, ते नर अन्ति बिगूचिया ।।
तुलनीय
दुर्जनेन समं सख्यं प्रोति चापि न कारयेत् । उष्णो दहति चाङ्गारः कृष्णायते करम् ॥
-सुभाषित रत्न भाण्डागार, पृष्ठ ५५ ।
ग. तैतालीसवां छप्पय -
भ्रमर इक्क निसि भ्रमै परिउ पंकज के संपटि । मन महि मंडइ आस रयणि खिग माहि जाइ घटि ।। करिहैं जलज विकास सूर परभात उदय जब ।
मधकर मन चितवइ मक्त हवै है बंधन तब ।। छोहल्ल द्विरद ताही समय, सर मो आयउ दइब बसि । अलि कमल पत्र पुरइणि सहित, निमिष माहि सो गयउ प्रसि ।।
तुलनीय
रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभात
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्रीः । इत्यं विचिन्तयति कोषगते द्विरेफे हा हन्त हन्त नलिनी गज उज्जहार ।।
-संस्कृत सुभाषित। इन उदाहरणों से छीहल के भाव-ग्रहण-चातुर्य, कवि-कौशल और काव्य-मर्म को पहचानने की क्षमता का पता तो चलता ही है, यह भी अनुमित होता है कि उन्होंने संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया होगा । निश्चय ही विषय-निरूपण, भाव-प्रतिपादन, दृष्टान्तचयन, अनुकुल भाषा-शैली आदि की दृष्टि से छीहलकृत 'बावनी' हिन्दी नीति-काव्य की अनूठी निधि है । इसमें निरूपित नीति के विषय जितने वैयक्तिक महत्त्व के हैं, उतने ही सामाजिक महत्त्व के भी। वे पारिवारिक और सामाजिक दृष्टि से जितने मूल्यवान हैं, उतने हो धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी। वस्तुतः उनका क्षेत्र बड़ा व्यापक है। पिछले खेवे की नीति विषयक रचनाओं को भी 'बावनी' ने पर्याप्त प्रेरित और प्रभावित किया है। यहाँ छीहल केवल नीतिकार नहीं, अपितु योग्य नीतिकाव्यकार हैं। घ/३. उदर-गीत
'उदर गीत' में केवल चार पद्य हैं । चारों पद्य उत्कृष्ट भक्ति-गीत के उदाहरण हैं। इन गीतों में कवि ने बताया है कि मानव अपनी माता के गर्भ में पिण्डरूप में वास करने से लेकर मृत्यु पर्यन्त अज्ञानी और विषयासक्त बना रहता है, वह जिन (अथवा परब्रह्म) की भक्ति नहीं करता है। इसीलिए वह जीवन्मुक्त नहीं हो पाता। रचना में उपक्रम और उपसंहार का अभाव है, जो इसके गीत-संकलन होने का प्रमाण है ।
छीहल कहते हैं कि जीव दस मास गर्भस्थ रहता है । गर्भ में पिण्ड रूप में उसे अधोमुख रहना पड़ता है-अत्यधिक कष्ट सहना पड़ता है। कष्टपूर्ण स्थिति में वह सोचता है कि इस बार कष्ट से उद्धार पाने के निमित्त जिनेन्द्र की भक्ति करूँगा। वह जन्म पाता है । जन्म पाते ही, संसार की हवा लगते हो, वह मूर्ख सब कुछ भूल जाता है (गीत-१)।
जैन साहित्यानुशीलन
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