________________
रास रचना
रचयिता
३६०. वाणियां रासो ३६१. पोस्ती रासो
भानुदास ट बखतो बाघलिया
( धनपाल )
इसके अतिरिक्त रास काव्य रूप के ही अनुरूप अन्य काव्य रूप संज्ञक रचनाएं और उपलब्ध होती हैं३६२. भविष्यदत्त कहा ३६३. कुबलयमाला कहा ३९४. लीलावई कहा ३६५. सुन्दसण चरिउ ३६६. करकण्डु चरिउ
३६७. जिणदत्त चरिउ
३६८. णायकुमार चरिउ
( पुष्पदन्त )
मुख्य रूप से उक्त सभी जैन रास संज्ञक रचनाओं को हम निम्न रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं(क) चरित्र काव्य -
(i) यतियों, मुनियों के चरित्राखयानक रास काव्य । (ii) तीर्थंकरों के चारित्र्याख्यानक रास काव्य ।
(iii) तीर्थ स्थलों के माहात्म्य विषयक रास काव्य
(ख) नीति एवं आचार विषयक रास काव्य
(ग) व्रत एवं उपासना के विधि विधानपरक रास काव्य
(घ) पौराणिक कथा- सम्मत रास काव्य
(i) राम चरित्रपरक
(ii) कृष्ण चरित्रपरक
(ङ) रोमांचक रास काव्य
(च) व्यंग्य-विनोदपरक रास काव्य
उक्त वर्गीकरण के आधार पर उपर्युक्त अंकित सभी रचनाओं का पुनर्प्रस्तुतीकरण यहां समीचीन नहीं होगा । मुनि जिन विजय महाराज ने जैन रास की परम्परा का विकास शालिभद्र सूरि प्रणीत भरतेश्वर बाहुबलि रास सम्वत् १२४१ विक्रम (सन १९८४ ई०) से माना है। हमारी सूचना के अनुसार यह रचना १२२१ विक्रम की है लेकिन इससे पूर्व भी अब कुछ रचनाओं का उल्लेख मिल जाता है। जैन साहित्य में जहां रासो संज्ञक रचनाओं की प्रचुरता है, वहीं जैन कवियों ने आचार, परि कहा, चर्चरी आदि काव्य रूपों की शैली में भी रचनाएं प्रस्तुत की है। जैन साहित्यकारों, विशेषकर जनसाधुओं ने 'रास' काव्य रूप को प्रभावशाली काव्य शैली के रूप में अपनाया और प्रशस्त किया तथा ऊपर किये गये वर्गीकरण के अन्तर्गत उन्होंने अपने तीर्थंकरों के जीवन चरित तथा वैष्णव अवतारों की कथाओं को भी जैन आदर्शों के आवरण में 'रास' काव्य रूप में प्रस्तुत किया है।
जैन रास काव्यों की एक विशिष्ट भूमिका रही । जैन मंदिरों में श्रावकगण इन रास रचनाओं को रात्रि के समय ताल देते हुए और अंग संचालन के साथ गाया करते थे । चौदहवीं शताब्दी तक इस प्रकार की प्रवृत्ति का प्रचलन रहा। लेकिन बाद में इसे प्रतिबन्धित कर दिया गया और वे मात्र गेय रूप में ही प्रस्तुत किये जाने लगे। यह कहना अधिक समीचीन होगा कि जैन साहित्य में सबसे अधिक लोकप्रिय सर्जनात्मक विधा 'रास' ही थे। कुछ जैन कवियों ने रामायण और महाभारत की कथाओं के विशिष्ट पात्र राम और कृष्ण के चरित्रों को अनेक धार्मिक सिद्धान्तों और विश्वासों के अनुरूप चित्रित किया है ।
अन्त में यह कहना अधिक तर्क-संगत और आवश्यक प्रतीत होता है कि प्रस्तुत रास ग्रन्थों के काव्यकलागत मूल्यांकन की आज आवश्यकता है और यदि किसी सूत्र से व्यवस्था की जा सके तो यह शोध परियोजनात्मक अध्ययन की नवीन दिशा दे सकता है । सैद्धान्तिक आचार-व्यवहार तथा रीतिनीति के इतर इन रासों कृतियों में रोमांचक शैली की कतिपय रचनाएं अच्छे कलात्मक मूल्यों से परिपूर्ण हैं।
१. द्रष्टव्य- (१ ) रास मीर रासान्वयी काव्य
जैन साहित्यानुशीलन
रचनाकाल
Jain Education International
(२) लेखक के शोध प्रबन्ध 'पृथ्वीराज रासो का लोकतास्विक अध्ययन' का प्रथम अध्याय (राज० विश्वविद्यालय, १९७३)
For Private & Personal Use Only
१४३
www.jainelibrary.org