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________________ हिन्दी के विकास में जैन विद्वानों का योगदान 0 डॉ० प्रेमचन्द्र विका हिन्दी भारतवर्ष की प्रधान भाषा है। इस विशाल देश की बहुत बड़ी संख्या हिन्दी भाषा के किनी न किसी रूप का व्यवहार करती है। जन-जन की भाषा होने से इसे झोपड़ी से लेकर महलों तक आदर प्राप्त हुआ है। इस भाषा में विपुल परिमाण में साहित्य रचा गया है। अब तक सैकड़ों ही नहीं अपितु हजारों कवियों ने इस भाषा में अपनी विविध कृतियों से मां भारती के भण्डार को भरा है। वस्तुतः इस भाषा का साहित्य लोक-भाषा का साहित्य है। भारतीय संस्कृति के पिछले हजार वर्षों के रूप को समझने के लिए हिन्दी एकमात्र तो नहीं लेकिन सर्वप्रधान साधन अवश्य है। हिन्दी भाषा की उत्पत्ति के साथ ही भारतीय संस्कृति एक विशेष दिशा की ओर मुड़ती है। भारतीय संस्कृति की जो छाप प्रारम्भ की हिन्दी भाषा पर पड़ी है वह इतनी स्पष्ट है कि केवल भाषा के अध्ययन से ही हम भारतीय संस्कृति के विभिन्न रूपों का अनुमान लगा सकते हैं । हिन्दी भाषा में उपलब्ध साहित्य का मूल्य केवल साहित्यिक क्षेत्र में ही नहीं है, वह हमारे पिछले हजार वर्षों के सांस्कृतिक. सामाजिक और धार्मिक अवस्थाओं के अध्ययन का भी सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है । समूचे मध्य युग के अध्ययन के लिए संस्कृत की अपेक्षा इस भाषा का साहित्य कहीं अधिक उपादेय और विश्वसनीय है। यह लोक-जीवन का सच्चा और सर्वोत्तम निर्देशक है। संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश की भांति हिन्दी भाषा में भी विशाल परिमाण में जैन साहित्य रचा गया है। जैनाचार्यों, संतों एवं कवियों का भाषा-विशेष के प्रति कभी आग्रह नहीं रहा । उन्होंने तो जन सामान्य की उपयोगिता की दृष्टि से अपने समय की लोकभाषा को अपने काव्य-सृजन का माध्यम बनाया। यही कारण है कि भारत की सभी प्रसिद्ध भाषाओं में जैन कवियों द्वारा रचित साहित्य मिलता है। सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन में जैन साहित्य सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है । यह साहित्य भारतीय वाङ्मय का अपरिहार्य अंग है । जर्मन विद्वान् डॉ० एम० विण्टरनिट्ज का कथन है कि भारतीय भाषाओं के इतिहास की दृष्टि से भी जैन साहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जैन सदा इस बात का ध्यान रखते थे कि उनका साहित्य अधिक से अधिक जनता को प्रभावित करे। इसी कारण जैन विद्वानों ने हिन्दी भाषा में भी प्रचुर साहित्य रचा। परन्तु खेद है कि हिन्दी में सातवीं से चौदहवीं शताब्दी तक लोक भाषा में जिस साहित्य का सृजन हुआ, उसकी उपेक्षा ही रही, जिसका परिणाम परवर्ती जैन साहित्य पर भी पड़ा। जैन कवियों द्वारा रचित साहित्य को धार्मिक साहित्य की संज्ञा देकर वर्षों तक उसे साहित्य की परिधि में परिगणनीय नहीं समझा गया। यही कारण है कि समूचे हिन्दी साहित्य के इतिहास में इस तरह के कुछ कवियों को छोड़कर शेष कवि अछूते ही रहे। परन्तु क्या जैन साहित्य मात्र धार्मिक साहित्य ही है ? क्या वह साहित्य की परिसीमा में परिगणनीय नहीं है ? इस संबंध में अपने हिन्दी साहित्य का आदिकाल' में आचार्य श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी ने जो तथ्य प्रस्तुत किये हैं वे उल्लेखनीय हैं। उनके अनुसार धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्य की संज्ञा से वंचित नहीं हो सकती । साहित्य में धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता कोई बाधा नहीं है। यह तो उसका अपना वैशिष्ट्य है। हिन्दी साहित्य का आदिकाल जैन कवियों की रचनाओं से परिपुष्ट ही नहीं, उसके बिना अपूर्ण ही रहेगा । इस काल के अनेक उच्च कोटि के कवियों में स्वयंभू, पुष्पदन्त, योगीन्द्र, धनपाल, हरिभद्र सूरि, हेमचन्द्र, रामसिंह, सोमप्रभ सूरि, मेरुतंग, देवसेन आदि हैं । इनके काव्य में मानव जीवन का पूर्ण चित्र प्राप्त होता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रथम भारतीय लेखक श्री शिवसिंह सेंगर जैन कवि 'पुष्पदंत' को हिन्दी का आदिकवि मानकर हिन्दी साहित्य का प्रारंभ सन् ७७० से मानते हैं और पुष्पदंत के अलंकार-ग्रन्थ को हिन्दी की प्रथम रचना। हिन्दी काव्यधारा' के लेखक श्री राहुल सांकृत्यायन ने 'स्वयम्भू' को आदि कवियों में श्रेष्ठ माना है। राहुल जी का कथन है कि इन जैन कवियों का विस्मरण करना हमारे लिए हानि की वस्तु होगी । ये कवि हिन्दी काव्य-धारा के प्रथम स्रष्टा थे। वे जैनेतर कवि अश्वघोष, भास, कालिदास और बाण की जूठी पत्तले नहीं चाटते रहे, बल्कि उन्होंने एक योग्य पुत्र की तरह हमारे काव्य-क्षेत्र में नया सृजन किया है। नये चमत्कार, नये भाव पैदा किये । यह १२४ आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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