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________________ भाव- व्यञ्जना ___ भाव-व्यञ्जना की दृष्टि से मानवीय प्रेम की प्रतिष्ठा तथा लोकव्यापी सुख-दुःखमय धात-प्रतिघातों के बीच संयोग और वियोग की निवृत्ति एवं परमपद की प्राप्ति समान रूप से सभी कथा-काव्यों में वर्णित है। भविसयत्तकहा में यदि माता और पुत्र का अमित स्नेह आप्यायित है तो विलासवती कथा में नायक और नायिका के सच्चे एवं पवित्र प्रेम की उत्कृष्टता तथा श्रीपाल और सिद्धचक्रकथा में मनुष्य की भोगलिप्सा और नारी के अवदान प्रेम की कथा वणित है । अतएव संयोग और वियोग की विभिन्न स्थितियों में मानसिक दशाओं का सहज चित्रण हुआ है । आत्मगहीं, ग्लानि,पश्चात्ताप, विस्मय, उत्साह, क्रोध, भय आदि अनेक भावों का संचरण विभिन्न प्रंसगों में लक्षित होता है। पति श्रीपाल के समुद्र में गिरा दिये जाने पर वियुक्त रत्नमंजूषा जहां पति के गुणों का स्मरण कर उनकी याद करती है, वहीं माता-पिता और अपने भाग्य को कोसती है। वह कहती है- "मेरे पिता ने निमित ज्ञानी के कहने से मेरा विवाह परदेश में क्यों किया?" __ अकेली भविसयत्त कहा में मनोवैज्ञानिक चरित्र, नाटकीयता, प्रवाह एवं क्षिप्रता तथा हाव-भावों का प्रदर्शन संवादों में सुनियोजित है। किसी-किसी कथा-काव्य में स्थानीय रंगीनी भी देखी जाती है "कउण काज थेरी आरडवि, काहे कारणि पलावे करहि । किसि कारणि दुख धरहि सरीरन, वेगि कहेहि इउ जंपइ वीरन।" (जिन० चउ० २०६) अंलकार-योजना अपभ्रश के कथा-काव्यों में उपमा, सन्देह, भ्रांतिमान, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, निदर्शना, श्लेष, स्मरण, रूपक, व्यतिरेक, प्रतिवस्तूपमा, उदाहरण, स्वभावोक्ति, विनोक्ति, अर्थान्तरन्यास, अनुमान, काव्यलिंग, परिसंख्या, विभावना, विशेषोक्ति, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा, यथासख्य आदि अंलकार दृष्टिगत होते हैं। कुछ अलंकारों के उदाहरण दृष्टव्य हैं "हट्ट मग्गु कुलसील णिउतहि सोह ण देइ रहिउ वणिउहि' (भ०क० विनोक्ति) 'सउतडिय तरलविज्जुल सणेहि नं पलयकालु गज्जिउ घणेहिं । (विला. क. ६,२४)' स्वरूपोत्प्रेक्षा 'दुग्णयणय चक्कासणि सचक्क पणवेवि चक्केसरि णयणिचक्क (जिनदत कथा-यमक) 'पाविउ मई विण्णिवि उसदेसहं कहि वप्प दिग्ण पर एसह । तेण कहिउ जं कहिउ णिमित्तिय सो मई तुज्जु विहायउ पुत्तिय" (सि. क. नरसेन) १,४२ चरित्र-चित्रण चरित्र-चित्रण में अपभ्रश कथा-काव्यों के लेखकों में धनपाल, लाखू और साधारण सिद्धसेन को जितनी सफलता मिली है, उतनी अन्य किसी कथाकाव्यकार को नहीं । कथाकाव्य के लेखकों ने सामान्य व्यक्ति को नायक बनाकर उसके जीवन के चरम उत्कर्ष की सरणि प्रदर्शित की है। कथा काव्यों में जहां यथार्थ से आदर्श की ओर बढ़ने तथा जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति का सन्देश निहित है, वहीं जनसामान्य की मांगलिक भावनाओं की मधुर अभिव्यञ्जना है। सामान्य रूप से इन कथा-काव्यों में जीवन के घोर दुःखों के बीच उन्नति का मार्ग प्रशित है, जिस पर चलकर कोई भी व्यक्ति सुख एवं मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। संवाद-संरचना अपभ्रश के कथाकाव्यों में संवाद-संरचना कई रूपों में मिलती है। यदि जिनदत्त-कथा के संवाद अलंकृत हैं और गीति-शैली में कहीं कहीं वर्णित हैं तो भविसयत्तकहा में सरल, स्वाभाविक और सजीव हैं । प्रायः सभी कथाकाव्यों में संवादों की मधुरता और सरसता लक्षित होती है। बड़े और छोटे दोनों प्रकार के संवाद इन कथा-काव्यों में मिलते हैं। सभी कथाकाव्यों में वातावरण तथा दृश्यों के बीच संवादों की योजना हुई है। छन्द योजना अपभ्रश के कथा-काव्यों में मुख्य रूप से मात्रिक छन्द प्रयुक्त है। यद्यपि वैदिक छन्द ताल और संगीत पर आधा-रित है, पर उनमें अक्षर प्रधान हैं । उनका आधार गण, मात्रा और स्वराघात है। और इसीलिए नियत अक्षरों में आकलित होने से उसे 'वृत्त' कहा जाता जैन साहित्यानुशीलन १०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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